ओसामा की मौत की चर्चा ९/११ के बाद से लगातार होती रही है, पर आज तक ये सब अफवाहें ही निकलीं। आज ओबामा ने सीना ठोंक कर यह एलान कर डाला है कि अमेरिका के खुफिया दस्ते ने दुश्मन नंबर एक को हलाक कर डाला है। डीएनए टेस्ट ने भी इसकी पुष्टि कर दी। सो, अब किसी शक-सुबहे की गुंजाइश नहीं। इस बात की पड़ताल की जा सकती है कि इसका क्या असर अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर पड़ेगा और हमारे लिए कौन-सी नई चुनौतियां पैदा हो गई हैं? अमेरिका भलेे ही इस नायाब जीत का जश्न मना ले, हमारे लिए यह सोचने की जरा भी गुंजाइश नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ हमारी जंग में इससे कोई राई-रत्ती भर फर्क पड़ेगा।
सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि ओसामा और अलकायदा की जो बुनियादी दुश्मनी अमेरिका और पश्चिमी ईसाईयत की तहजीब वाली दुनिया से थी, उसका हिस्सा हिंदुस्तान नहीं था। हम पर जो हमले कट्टरपंथी जिहादी दहशतगर्द करते रहे हैं, उनके लिए अलकायदा नहीं सीधे-सीधे पाकिस्तानी फौज और आईएसआई जिम्मेदार रहे हैं। अलकायदा उन्हें सिर्फ एक बहाना देता रहा है कि अपना दामन पाक-साफ दिखलाने का।
अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई में अमेरिका संयुक्त मोर्चे की बात जरूर करता रहा है, पर इस लड़ाई का अभिन्न हिस्सा वह हिंदुस्तान पर पाकिस्तान से थोपे हमलों को शामिल नहीं करता। ९/११ के बाद से हमारे भोले नेता यह गलतफहमी पाले रहे हैं कि अब अमेरिका हमारी हिफाजत करेगा और पाकिस्तान पर दबाव डालेगा। यह हसरत कभी पूरी नहीं हुई, न होगी। उल्टे हमें यह नसीहत दी जाती रही है कि पाकिस्तान खुद दहशतगर्दी का शिकार है, उसे हमारी हमदर्दी की दरकार है। हमें धीरज रखना चाहिए। मुंबई के खून-खराबे के बाद भी कोई फर्क इस नजरिए में नहीं आया।
आज भी ओसामा के मारे जाने के बाद हमारी मुसीबतें कम नहीं होती- बढ़ती ही दिखलाई देने लगी हैं। अब अफगानिस्तान में मुल्ला उमर की वापसी का रास्ता साफ हो गया है। देर-सवेर अमेरिका की नजर में अच्छे तालिबान भी लौट जाएंगे और वहां का निजाम बदल जाएगा। गृहयुद्ध जैसे हालात जारी रहेंगे और बदस्तूर जारी रहेगी अफीम की तस्करी और कबाइली हिंसा। हिंदुस्तान ने हाल के वर्षों में काबूली वाला के मुल्क में खून-पसीना बहा, जो कुछ हासिल किया है, वह पलक झपकते नेस्तनाबूद हो सकता है। अमेरिका की फौज की वापसी के बाद हमारे लिए वहां महफूज रहना मुश्किल हो जाएगा। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमांत पर तालिबानी निजाम की बुनियाद पुख्ता होने के बाद जम्मू-काश्मीर में इसका लावा बह आने का जोखिम साफ गहरा रहा है।
जो बात बिल्कुल साफ है कि ओसामा का खात्मा बिना पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और फौज के कम से कम एक हिस्से की रजामंदी और सहाकर के बिना संभव नहीं था। बरसों से यह बात जगजाहिर थी कि पाकिस्तान ने ओसामा को अपने यहां पनाह दे रखी थी। आज जिस कोठी में उन्हें हलाक किया गया, उसकी शक्ल और सूरत एक 'सेफ हाउसÓ की जैसी थी, इसका निर्माण एबटाबाद की छावनी वाले इलाके में पाकिस्तानी मिलिट्री एकेडमी के सदर दरवाजे के ऐन सामने किया गया था। इसके हिफाजत के लिए चारों ओर १८ फीट ऊंची दीवार और कंटीले तारों की बाड़ थी। आस-पड़ोस का इलाका खाली करवाया गया था और इस इमारत की कोई खिडक़ी बाहर की तरफ नहीं खुलती थी।
यह सोचने वाला बेवकूफ ही कहा जा सकता है, जो यह मान ले कि पाकिस्तानी फौज को या खुफिया एजेंसियों को इस बात की पड़ताल की जरूरत महसूस नहीं हुई कि इस मकान में कौन रहता है और क्या करता है? इसी तरह कम से कम हमारे गले के नीचे यह बात भी नहींं उतरती कि फौजी इलाके में इतना जोरदार धमाका हुआ कि दूर-दराज इलाके में खिड़कियों के कांच टूट गए। लोगों के दिल दहल गए, मगर छावनी के किसी अफसर या जवान ने बाहर निकल कर यह जानने की कोशिश नहीं की, कि हो क्या रहा है? इस्लामाबाद के इतने निकट फौजी इलाके में आसमान की निगरानी अत्याधुनिक रडार करते हैं। कैसे एक-दो नहीं, चार-चार हैलीकॉप्टर ठिकाने तक पहुंच पाए?
जाहिर है, आज भले पाकिस्तानी हुक्मरान कुछ भी कहें, मेजबान ने ही अपने मेहमान को तस्तरी में शिकारी के आगे पेश किया था। हाल के दिनों में पाकिस्तान इस बात की शिकायत करता रहा है कि अमेरिकी दस्ते उसकी संप्रभुता का उल्लंघन करते रहे हैं और उसके एजेंट मनमाना खून-खराबा कर सरकार की परेशानी बढ़ाते रहे हैं। पाकिस्तान पूरी तरह अमेरिका के रहमो-करम पर बसर करता है और सिवाय रोने-कराहने, चीखने-चिल्लाने के कुछ प्रतिरोध करने की उसकी औकात नहीं।
भारत में हम चाहें जो कुछ भी सोचें, पाकिस्तान के तानाशाहों को इस बात का पूरा एहसास है कि वह अपनी गद्दी पर तभी तक बने रह सकते हैं, जब तक अमेरिकी आका अपनी नजरें नहीं फिराते। अमेरिका अपने राष्ट्रहित को देखते हुए, जिसे चाहे उखाड़ फेंकता है। किसी को छात्र आंदोलन के बहाने तो किसी को तख्तापलट से या फिर विमान में बम धमाके से। किसी को उनका कोई मोहरा फांसी पर लटका देता है तो किसी और का कत्ल आम जलसे या जुलूस में होता रहा है। फील्ड मार्शल अयूब खान से लेकर बेनजीर भुट्टो तक, वहां के हाकिमों का यही हश्र देखने को मिला है।
जब तक ओसामा मारा नहीं गया था और पाकिस्तान पर उसे पनाह देने का आरोप अमेरिकी लगाते थे, तब तक पाकिस्तान पर कुछ न कुछ बंदिश और निषेध घोषित करना उनकी मजबूरी थी। हमारे लिए यह समझना जरूरी है कि दिखावटी गुस्सा प्रकट करने के बाद पाकिस्तान अपने पुराने आका से मनमांगी मुराद पा लेगा, कहीं अधिक आसानी से। पाकिस्तान न केवल अमेरिकी बैसाखी पर टिका है, बल्कि इसी बैसाखी का इस्तेमाल हथियार के रूप में हिंदुस्तान के खिलाफ बखूबी करता रहा है। आगे भी यही होता रहेगा। इस बात को रेखांकित करने की सख्त जरूरत है कि राष्ट्रपति जनरल जिया के राज के दिनों से पाकिस्तान समाज और फौज का तालिबानीकरण तेजी से हुआ है। पाकिस्तान ने पैट्रो डॉलरों के लालच में, हिंदुस्तान से बांग्लादेश की आजादी का बदला लेने के लालच में अपने दक्षिण एशियाई सहनशील इस्लामी संस्कार को त्याग वहाबी साचे के उग्र-आक्रामक सऊदी इस्लाम को चुना है।
आखिर में यह बात भी भुलाई नहीं जानी चाहिए कि इस घड़ी में पाकिस्तान की हालत खिसियाए बिल्ले जैसी है, जिसे नोंचने के लिए जो खंभा सबसे पास नजर आएगा, वह हिंदुस्तान ही है। अमेरिका का तो वह बाल भी बांका नहीं कर सकता, पर यह प्रमाणित करने के लिए कि वह इस्लाम की सलामति का झंडाबरदार है, हिंदुस्तान जैसे नरम निशाने के मर्मस्थल पर कभी भी घातक वार कर सकता है। हमारे लिए जीत का जश्न मनाने या राहत की सांस लेने का समय अभी बहुत दूर है।
(लेखक जेएनयू में प्रोफेसर हैं)
D.B.07-05-2011
No comments:
Post a Comment