उद्योग जगत एवं नागरिक समाज के 14 प्रमुख लोगों ने हमारे नेताओं के नाम खुला पत्र लिखकर भ्रष्टाचार और गवर्नेस के सवाल पर जो चेतावनी दी है, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। ये वही लोग हैं, जिनकी उद्यमशीलता के चलते देश ने न सिर्फ विकास किया है, बल्कि उसके भीतर एक आर्थिक ताकत बनने की महत्वाकांक्षा भी जगी है। सरकार ने तो उत्पादन और जिम्मेदारी के कामों से लगातार हाथ ही खींचे हैं। यदि देश की आर्थिक गतिविधियों के कर्णधार ही हमारी प्रशासनिक प्रणाली पर संदेह करने लगे हैं तो यह समझना चाहिए कि पानी जरूर सिर से ऊपर निकल गया है। तभी आमतौर पर मुखर न रहने वाला औद्योगिक जगत और नागरिक समाज प्रशासनिक प्रणाली में बड़े सुधार की मांग कर रहा है।
देश के खामोश बहुमत की भी यही आवाज है। इन लोगों ने अपने पत्र में प्रशासनिक सुधार के लिए जो सुझाव दिए हैं, उनकी मांग राजनीतिक क्षेत्र, नागरिक समाज और न्यायपालिका की तरफ से लंबे समय से होती रही है। उदाहरण के लिए लोकपाल विधेयक साठ के दशक से ही अपेक्षित रहा है। इसी तरह से जांच एजेंसियों को राजनीति और कार्यपालिका के दबावों से मुक्त रखने की मांग भी नई नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2006 में ऐसा ही सुझाव दिया था और हाल में एक मुकदमे के फैसले में फिर उसे दोहराया है। लेकिन जी-14 के नाम से संबोधित किए जा रहे इस पत्र की एक मांग जरूर नए संदर्भ में है। वह न्यायिक क्षमता वाले व्यक्तियों के नेतृत्व में ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का निर्माण करने के बारे में है, जो विशेषाधिकार के तहत लिए जाने वाले तमाम फैसलों की निगरानी करें। व्यवस्था में पारदर्शिता व जवाबदेही कायम करने के लिए जी-14 के इस मुंबई मसविदे पर चर्चा होनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके, इसे अमल में लाया जाना चाहिए।
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