अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दीवाली के अगले दिन जब भारत की धरती पर कदम रखेंगे, उनके कंधों पर स्वदेश में घटती लोकप्रियता का जबरदस्त बोझ होगा। हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के हर दूसरे वर्ष होने वाले चुनाव में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को साठ सीटों से हाथ धोना पड़ा है।
क्या यह सिर्फ दो साल पहले ‘येस वी कैन’ और ‘होप’ के नारों पर सत्ता में आए राजनेता के प्रति अमेरिकियों के मोहभंग की शुरुआत है? शायद हां। मंदी के दौर में राष्ट्रपति पद के अभियान के दौरान जो नाटकीय उम्मीदें ओबामा ने जगाई थीं, खासकर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर, उन्हें वह पूरा नहीं कर सके हैं।
ओबामा की भारत यात्रा पर इस पराजय का क्या असर पड़ेगा? ज्यादा नहीं। भारत के लिए अहम मुद्दों पर अमेरिका शिखर यात्रा के उपलक्ष में अपने घोषित रुख बदलेगा, ऐसी उम्मीद न पहले थी, न अब है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट का सवाल हो या आतंक विरोधी लड़ाई में पाकिस्तान के साथ अमेरिका की कुटिल मित्रता का, वह सचाई तभी स्वीकार करेगा, जब खुद उसके हितों पर चोट पड़ेगी। चुनाव प्रचार में ओबामा भारत का हौआ खड़ा करते रहे हैं।
आउटसोर्सिग के नाम पर हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए वीजा की मुश्किलें भी पैदा की गईं। पराजय के बाद कोई कारण नहीं कि वह भारत के खिलाफ यह संरक्षणवादी रवैया बदलेंगे। इसलिए महाशक्ति मेहमान का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत सिर्फ अपनी ताकत के बूते आगे बढ़ सकता है। अब हमारे पास एक विशाल और उभरते बाजार की ताकत भी है, जिसकी भाषा अमेरिकी राष्ट्रपति सबसे बेहतर समझते हैं
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