हमें नहीं मालूम गुस्सा आता किधर से है? ऐसा क्यों है कि कुछ लोग बेहद तुनकमिजाज होते हैं, जबकि कुछ अन्य बहुत उकसाए जाने पर भी अपना मानसिक संतुलन और शांत स्वभाव बनाए रखते हैं? क्या गुस्सा हमारे डीएनए में होता है? क्या यह बुरी सेहत या खराब मनोदशा का परिणाम है या फिर परिस्थितियां ही हमें अपना आपा खो देने के लिए मजबूर कर देती हैं?
मेरे एक मुस्लिम मित्र थे। बहुत काबिल और प्रतिभाशाली। उनका आईक्यू बहुत अच्छा था। वे बहुत अच्छा लिखते थे और उनके लेख देश के जाने-माने जर्नल्स में छपते थे। उनकी कुछ किताबें भी प्रकाशित हुई थीं। वे सुसंस्कृत, शिष्ट और जहीन थे। उनके घर पर उर्दू के कुछ आला शायरों से मेरी भेंट हुई थी, जिनमें अली सरदार जाफरी और साहिर लुधियानवी भी शामिल थे। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने अपनी कौम को आगे बढ़ाने के लिए जितना काम किया, उतना बहुत कम मुस्लिमों ने किया होगा। उन्होंने मुंबई और औरंगाबाद में कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की थी। राजनीति में भी उनका खासा दखल था। उन्होंने कई चुनाव जीते थे और वे कई वर्षो तक महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे। इसके बाद उन्होंने संसद तक का सफर तय किया। बहुतों को उम्मीद थी कि वे इंदिरा गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बनेंगे। शीर्ष के कई राजनेताओं से उनके गहरे ताल्लुक थे।
लेकिन उनमें एक खामी थी। गुस्सा हमेशा उनकी नाक पर बैठा रहता था। अक्सर वे गुस्से में अपना आपा खो बैठते थे। अलबत्ता वे बाद में अपने बरताव के लिए माफी भी मांगते थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती थी। इंदिरा गांधी को उनके इस गुस्सैल मिजाज के बारे में मालूम था, इसीलिए उन्होंने उन्हें अपना मंत्री नहीं बनाया। उन्होंने अपनी इस एक कमजोरी के लिए भारी कीमत चुकाई। क्रोध को मानवीय स्वभाव की पांच बुराइयों में से एक बताया गया है। अन्य चार हैं : काम, लोभ, मोह और अहंकार। लेकिन हम नहीं जानते कि आखिर क्रोध आता किधर से है? न ही हमें आम तौर पर पता होता है कि इससे मुक्त कैसे हुआ जाए। ऐसा क्यों है कि कुछ लोग बेहद तुनकमिजाज होते हैं, जबकि कुछ अन्य बहुत उकसाए जाने पर भी अपना मानसिक संतुलन और शांत स्वभाव बनाए रखते हैं? क्या गुस्सा हमारे डीएनए में होता है? क्या यह बुरी सेहत या खराब मनोदशा का परिणाम है या फिर परिस्थितियां हमें अपना आपा खो देने के लिए विवश कर देती हैं?
मुझे इन सभी सवालों के जवाब नहीं पता। लेकिन मैं लोगों के तरह-तरह के गुस्सों का गवाह रहा हूं। जब मैं मुंबई में रहता था, तो मैं एक व्यक्ति को जानता था। वह मेरे घर के सामने रहता था। माह में एकाध बार ऐसा जरूर होता कि वह व्यक्ति गुस्से के मारे अपना आपा खो बैठता था। वह गुस्से में खूब जोरों से चीखता-चिल्लाता था और अपने कमरे में चक्कर काटता रहता था। इस दौरान उसकी पत्नी सिर झुकाए बैठी रहती। उसके दोनों डरे-सहमे बच्चे कसकर मां का आंचल पकड़ लेते थे। उस व्यक्ति का गुस्सा तकरीबन पंद्रह मिनट तक रहता, जिसके चरम पर वह अपना सिर दीवार से टकराने लगता। कई बार उसका सिर लहूलुहान हो जाता था। जब उसका गुस्सा शांत होता तो वह कुछ समय के लिए फर्श पर बैठा रहता और फिर अंतत: भोजन करने के लिए उठता था। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो हमेशा तमतमाए हुए रहते हैं, लेकिन वे गुस्से में कभी आपे से बाहर नहीं होते। ऐसे लोगों की सोहबत बुरी होती है। इनमें से अधिकतर लोग अच्छी पृष्ठभूमि के होते हैं। विलियम कर्टिस ने सच ही कहा है : ‘गुस्सा एक महंगी विलासिता है, जिसे केवल अच्छा पैसा कमाने वाले लोग ही वहन कर सकते हैं।’
कैप्टन मनमोहन सिंह : कुछ ही लोग ऐसे हैं, जिनकी उपलब्धियों ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि इतिहास की किताबों में उनका नाम सुरक्षित रहेगा। इन्हीं में से एक हैं कैप्टन एमएस कोहली, जिन्होंने वर्ष 1965 में माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई मापने वाले भारतीय पर्वतारोहियों के दल का नेतृत्व किया था। दुनिया के इस सबसे ऊंचे पर्वत शिखर पर पहुंचने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बना था। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य हस्तियों ने कैप्टन कोहली का सम्मान किया है। मैं पहले भी उन पर लिख चुका हूं। मैं अपनी कुछ पंक्तियां दोहरा रहा हूं : ‘कैप्टन कोहली और मौजूदा प्रधानमंत्री में कुछ बातें समान हैं। उनका नाम समान है : मनमोहन सिंह कोहली। उनकी पैदाइश उत्तर-पश्चिमी पंजाब के उसी हिस्से में हुई, जो अब पाकिस्तान में रह गया है। उनकी आयु भी तकरीबन एक-सी ही है। और उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है।’
एक वाक्य, दो अर्थ : पैरा-प्रोस्डोकियन एक तरह का फिगर ऑफ स्पीच है, जिसमें किसी वाक्य का अंतिम अंश रोचक और अप्रत्याशित होता है और पाठक को वाक्य के प्रारंभिक अंश पर एक बार फिर गौर करने को बाध्य कर देता है। इस तरह के वाक्यों का अंतिम अंश अक्सर पहले अंश के अर्थो को बदल देता है। व्यंग्यकारों में यह विधा बहुत प्रचलित है। मिसाल के तौर पर ये कुछ रोचक पैरा-प्रोस्डोकियन वाक्य देखिए :
1.मैंने ईश्वर से एक बाइक मांगी, लेकिन मुझे पता था कि ईश्वर हमारी ऐसी इच्छाएं पूरी नहीं करता। इसलिए मैंने एक बाइक चुरा ली और ईश्वर से माफी मांग ली।
2. चर्च जानेभर से ही हम क्रिश्चियन नहीं हो जाते। ठीक उसी तरह जैसे गैरेज में खड़े होनेभर से ही हम मोटरकार नहीं हो जाते।
3. रोशनी की रफ्तार आवाज की रफ्तार से तेज होती है। इसीलिए कुछ लोग केवल तभी तक चमकदार मालूम होते हैं, जब तक वे अपना मुंह नहीं खोलते।
4. अगर मैं आपसे सहमत हो गया तो हम दोनों ही गलत होंगे।
5. समाचार वह होते हैं, जिनकी शुरुआत ‘गुड मॉर्निग’ से होती है लेकिन उसके बाद उनमें तफसील से यह बताया जाता है कि यह गुड मॉर्निग क्यों नहीं है।
6.किसी एक व्यक्ति के विचारों को अपना बताना चोरी है। लेकिन बहुत से लोगों के विचारों को अपना बताना शोध है।
7. बस स्टेशन वह है, जहां बस रुकती है। रेलवे स्टेशन वह है, जहां ट्रेन रुकती है। और वर्क स्टेशन वह है, जहां कोई भी कामकाज नहीं होता।
8.बैंक वह है, जो केवल तभी आपको कर्ज में पैसा देता है, जब आप दस्तावेजों से यह साबित कर दें कि आपको पैसे की जरूरत नहीं है।
9. हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है। हर असफल पुरुष के पीछे कोई और महिला होती है।
10. हमेशा किसी निराशावादी से ही पैसा उधार लें। वह कभी यह उम्मीद नहीं करेगा कि उधार चुकाया जाएगा।
11. एक कूटनीतिज्ञ वह है, जो आपको जहन्नुम में जाने को इस तरह कहता है कि आप सुखद यात्रा की तैयारियां करने लगते हैं।
12. पैसे से सुख नहीं खरीदा जा सकता। लेकिन इससे दुख को कम जरूर किया जा सकता है।
13. नॉस्टेल्जिया का अर्थ है किसी चीज को इस तरह याद करना, जैसी वह कतई नहीं थी।
(सौजन्य : विपिन बख्शी, नईदिल्ली)
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