Sunday, May 8, 2011

समाज के लिए चेतावनी

ये आंकड़े ऐसे हैं, जो किसी की भी संवेदना को झकझोर दें, लेकिन पितृसत्तात्मक सोच की पकड़ इतनी जबर्दस्त है कि संवेदनाओं की बेचैनी स्थितियों को बदल नहीं पाती। कन्या भ्रूण हत्या उत्तर भारत में कैसी महामारी बन चुकी है, इसका अंदाजा शायद आप इस बात से लगा सकें कि इसकी वजह से हर साल पांच से सात लाख यानी रोज तकरीबन 2000 कन्याओं को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है। अगर यह सब इसी तरह चलता रहा तो लंदन स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल हेल्थ एंड डेवलपमेंट का अनुमान है कि 20 साल बाद भारत में प्रति 120 लड़कों पर सिर्फ 100 लड़कियां होंगी। यह अनुपात पहले ही 113 पर 100 तक पहुंच चुका है।

अगर छह साल से कम उम्र में यह अनुपात देखें तो पंजाब, दिल्ली और गुजरात जैसे विकसित बताए जाने वाले राज्यों में 125 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं। कनाडा के मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका में छपे इस अध्ययन के मुताबिक भारत में कन्या भ्रूण हत्या रोकने का कानून तो है, लेकिन उसका धड़ल्ले से उल्लंघन होता है। इसमें रजिस्टर्ड डॉक्टर, अस्पताल और क्लीनिक सभी शामिल हैं। भारत में 34 हजार से ऊपर रजिस्टर्ड अल्ट्रासाउंड क्लीनिक हैं, जिनमें से अनेक क्लीनिक तो गर्भ के अंदर पल रहे बच्चे का लिंग जानने का केंद्र बने हुए हैं।

आम रुझान यह है कि अगर पहली संतान लड़की हो तो दूसरी लड़की के जन्म लेने की संभावना 54 फीसदी घट जाती है। सांस्कृतिक तौर पर स्त्रियों की दोयम हैसियत और लड़कियों को बोझ मानने का पारंपरिक नजरिया आज भी ऐसे जड़ें जमाए है कि ऐसे अपराध में शामिल लोगों को न तो सामाजिक अपमान झेलना पड़ता है और न ही कानून लागू करने वाली एजेंसियां इसे उचित गंभीरता से लेती हैं। मगर यह अपराध अब घोर लैंगिक असंतुलन पैदा कर रहा है। इस लिहाज से ताजा अध्ययन एक चेतावनी है, जिसकी अनदेखी व्यापक हितों की बलि चढ़ाकर ही की जा सकती है।

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