Sunday, May 8, 2011

चर्चा में परोपकार

भारतीय संस्कृति में परोपकार की बड़ी महिमा है, बल्कि दुनिया के तमाम धर्मो और सभ्यताओं में जरूरतमंदों की मदद करना एक ऊंचा मूल्य रहा है। कई मजहबों में तो यह परंपरा है कि लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा सामुदायिक कल्याण के लिए देते हैं। ऐसी परंपराएं संत और फकीरों के उपदेशों से बनी हैं। इसलिए यह बात बहुत से लोगों को विचित्र लग सकती है कि पिछले कुछ दिनों में भारत में परोपकार वॉरेन बफेट और बिल गेट्स की वजह से चर्चा में है।

उन दोनों बड़ी शख्सियतों की पहली पहचान उद्योग क्षेत्र में कुछ नया करने एवं बेशुमार धन कमाने से बनी। भारत में उनकी यात्राओं से माहौल बनता है, तो उसके पीछे भी असल में यही पहचान होती है। अब वे परोपकार की बात करते हैं तो लोग उसे भी सुनते हैं। ये बातें अपनी जगह सही हैं और उपयोगी भी। लेकिन ये कुछ प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ जाती हैं। धर्म जब परोपकार की बात करते हैं तो साथ ही धन कमाने में नैतिक साधनों के उपयोग और ईमानदारी पर भी जोर देते हैं। परोपकार की इस आधुनिक चर्चा में यह बात गायब है।

अगर उद्योग जगत स्वस्थ प्रतिस्पर्धा एवं नियमों पर सख्ती से अमल करते हुए चले और आगे बढ़ने के लिए सिस्टम को भ्रष्ट करने से बाज आए, तो ऐसी व्यवस्था विकसित हो सकती है, जिसमें जरूरतमंदों की संख्या घटती जाएगी। कॉपरेरेट की सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) की अवधारणा पिछले कुछ वर्षो में सामने आई है। अगर कंपनियां इसका ईमानदारी से पालन करें, तो अलग से परोपकार करने की जरूरत शायद नहीं पड़ेगी। विकास के लिए जिनके संसाधन लिए जाते हैं, अगर मुनाफे का एक हिस्सा उनके बीच बांटा जाए, तो हम एक बेहतर समाज बना सकते हैं। बफेट व गेट्स को यह श्रेय जरूर है कि उन्होंने परोपकार को चर्चा में लाकर इन सवालों को उठाने का मौका दिया है। इन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।

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