एक समय था जब मैं होली का बेसब्री से इंतजार करता था। लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जब मैं होली के नाम से ही तौबा करने लगा और होली के दिन पूरा समय घर की चहारदीवारी में बिताने लगा। जब मैं होली को बहुत पसंद करता था, वह मेरे छुटपन के दिनों की बात है। होली के दिन हमारा ठिकाना हुआ करता था मॉडर्न स्कूल के संस्थापक लाला रघुबीर सिंह जैन की कश्मीरी गेट स्थित कोठी। होली पर यहां तकरीबन पचास लोग इकट्ठा हो जाते। इनमें महिला, पुरुष, लड़के, लड़कियां, हिंदू, सिख, ईसाई सभी होते। हम ‘होली है’ का उद्घोष करते हुए एक-दूसरे को गुलाल लगाते और रंग-बिरंगा पानी एक-दूसरे पर उछालते।
दोपहर होते-होते यह सारी धमाचौकड़ी थम जाती। हम नहाते और नए कपड़े पहनकर कतार में लॉन में बैठ जाते, जहां हमें पूरियां और आलू की सालन परोसी जाती। यह सब दोपहर के एक बजे तक हो चुका होता था। इसके बाद हम घोड़े बेचकर सो जाते थे और शाम तक खर्राटे भरते रहते थे। उम्र बढ़ने के साथ ही होली मनाना मेरे लिए मुश्किल भरा होता गया। न सिर्फ होली मनाने का तरीका बदल गया, बल्कि उसके समय में भी तब्दीली आ गई। अब हम सुबह से दोपहर तक नहीं, बल्कि देर शाम तक होली का जश्न मनाते थे। लेकिन हम दिनभर घर में ही दुबककर बैठे रहते और भांग का सेवन करते।
निहंग लोग सालभर भांग का सेवन करने के लिए जाने जाते हैं। वे भांग को ‘सुख परसाद’ कहते हैं। इन्हें गुरुद्वारों के बाहर बादाम और भांग को ओखली में मूसल से पीसते देखा जा सकता है। वे इसे मीठे दूध में मिला देते हैं और तब तक पीते रहते हैं, जब तक पूरी तरह गाफिल न हो जाएं। वे स्वयं को ‘गुरु की फौज’ कहकर पुकारते हैं और कहते हैं कि वे ‘त्यार बर त्यार खालसा’ यानी जंग के मैदान में कूदने के लिए पूरी तरह तैयार हैं।
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महात्मा और महान नेता :
दिखावा और तड़कभड़क करने वाले
सभी लोग सुन लें यह
गांधी हमें छोड़कर चले गए थे
बहुत-बहुत साल पहले।
और हम कभी न जान पाते
उनकी महानता के बारे में
जब तक कि दूसरी दुनिया
और दूसरे देशों के लोग
नहीं बताते हमें कुछ भी।
हम प्रेम करते हैं उन्हें,
उन्हीं की सौगंध,
और रात-दिन गुनगुनाते हैं हम
उनकी प्रार्थनाएं और गीत।
लेकिन हमारे गुणों से कभी
यह नहीं झलकता
कि हम हैं उनके सच्चे अनुयायी।
क्या हम कभी नहीं करते भ्रष्टाचार
या नहीं खाते घूस?
क्या हमारे राजनेता बिताते हैं अपना जीवन
दीनता और निर्धनता में?
क्या हमारे व्यापारी करते हैं इस देश की सेवा?
भला हम कैसे करेंगे गांधी को गौरवान्वित?
पांच सौ करोड़ हजम कर जाने वाले
अफसरों के मार्फत?
(सौजन्य : कुलदीप सलिल, दिल्ली)
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भिखारियों की तरक्की : ब्रिटिश राज के दौरान भारत को राजा-महाराजाओं, सपेरों और फकीरों का देश माना जाता था। आज जहां इनमें से प्रारंभिक दोनों प्रजातियां तकरीबन लुप्तप्राय हो गई हैं, वहीं भिखारी अब भी बरकरार हैं। शायद वे चाल्र्स डार्विन की ‘सरवायवल थ्योरी’ का पालन कर रहे हैं। हाल ही की बात है। दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी में एक भिखारी ने घर की घंटी बजाई। एक बुजुर्ग महिला ने दरवाजा खोला और उसे कहा कि वह भिक्षा लेने बाद में आए, जब उनके पति लौट आएं। भिखारी ने जवाब दिया : ‘मैडमजी, मेरा मोबाइल नंबर लिख लीजिए और जब आपके पतिदेव लौट आएं तो मुझे एक मिस कॉल दे दीजिए।’
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भेड़चाल : हिमाचल प्रदेश के एक बुजुर्ग किसान को अस्पताल लाया गया। वह कंफ्यूज था और उसे महसूस हो रहा था कि उसे दिल का दौरा पड़ा है। उसकी मानसिक स्थिति की पड़ताल करने के लिए इमरजेंसी डॉक्टर ने पूछा : ‘यदि तुम्हारे पास सौ भेड़ें हों और उनमें से सात भाग जाएं तो तुम्हारे पास कितनी भेड़ें शेष रह जाएंगी?’ किसान ने जवाब दिया : ‘एक भी नहीं।’ डॉक्टर ने कहा : ‘नहीं, सही जवाब है तिरानवे भेड़ें।’ किसान ने हंसते हुए कहा : ‘डॉक्टर साब, आपको भेड़ों के बारे में कुछ नहीं पता। भेड़ें भेड़चाल में चलती हैं। अगर एक भेड़ भाग जाए तो निश्चित ही शेष भेड़ें भी उसके पीछे उठकर चल देंगी।’
(सौजन्य : रीतेन गांगुली, तेजपुर)
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टु और फोर : ‘टु गेट’ (प्राप्त करना) और ‘टु गिव’ (प्रदान करना) बहुत टेढ़ी खीर साबित हो सकता है, लेकिन अगर इसे दोगुना कर दें और कहें ‘फोर गेट’ (भूल जाएं) और ‘फोर गिव’ (माफ कर दें), तो सभी मुश्किलों का फौरन हल हो जाएगा।
(सौजन्य : जेपी सिंह काका, भोपाल)
खुशवंत सिंह
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।
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