जिस समय राजनेताओं की साख कई तरफ से निशाने पर है, संसद की लोक लेखा समिति (पीएसी) में हुए अभूतपूर्व हंगामे से लोगों में निर्वाचित प्रतिनिधियों को लेकर नकारात्मक छवि और मजबूत हो सकती है। जिस समय भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी चिंता है और यह समिति संभवत: अब तक के सबसे बड़े घोटाले की जांच कर रही है, दलगत आधार पर इसके सदस्यों का बंट जाना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि इससे सच्चाई तक पहुंचने की सत्ता एवं विपक्ष की निष्ठा पर भी प्रश्न खड़े होते हैं।
हालात ऐसे मोड़ ले सकते हैं, इसका अंदेशा पहले से था। घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन हो जाने के बाद जेपीसी और पीएसी के अधिकार एवं कार्यक्षेत्र का विवाद खड़ा हो गया। अगर इरादा घोटाले की तह तक जाने का होता तो इस विवाद का हल निकाला जा सकता था। पीएसी अगर सीएजी की रिपोर्ट की रोशनी में खुद को घोटाले के वित्तीय पक्ष तक सीमित कर लेती और राजनीतिक एवं नीतिगत मसलों को जेपीसी के लिए छोड़ दिया जाता, तो देश के सामने इस घोटाले की शायद ज्यादा ठोस एवं विश्वसनीय तस्वीर सामने आ सकती थी।
मगर ऐसा लगता है कि जहां सत्ता पक्ष को जेपीसी के गठन में ऐसे विवादों के जरिए कठोर तथ्यों को धुंधला कर देने का रास्ता नजर आया, वहीं विपक्ष ने शायद यह समझ लिया कि उसके पास अब सरकार को घेरने के दो मंच हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि समिति के सदस्यों ने पीएसी के अध्यक्ष पर रिपोर्ट लेखन को आउटसोर्स करने और समिति की कार्यवाही पूरी होने से पहले ही रिपोर्ट लिख लेने जैसे आरोप लगाए हैं। जब आरोप-प्रत्यारोप इस हद तक पहुंच जाएं, तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की सर्वोच्च प्रातिनिधिक संस्था में अहम मुद्दों पर आम सहमति की राष्ट्रीय आकांक्षा के ऊपर दलों का सियासी स्वार्थ कितना हावी हो जाता है।
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