भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और यह उचित ही है कि हम इस पर गर्व करते हैं। गुजरते वक्त के साथ चुनावों की साख बढ़ती गई है। स्वतंत्र न्यायपालिका और निर्भय मीडिया आधुनिक भारत के दो और बुनियादी स्तंभ हैं। लेकिन बात जब प्रशासन की आती है तो तस्वीर कुछ धुंधली होने लगती है। आजादी के बाद से प्रशासनिक सुधारों पर सिफारिश करने के लिए लगभग 50 आयोग और समितियों का गठन किया गया, मगर उनकी सिफारिशें आलमारियों में धूल खाती रही हैं। सरकारों की इसी अनिच्छा और टालमटोल का परिणाम है कि अब 83 पूर्व नौकरशाहों और रिटायर्ड मुख्य चुनाव आयुक्तों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। उनकी यह शिकायत वाजिब है कि शासन में कमजोरी का परिणाम लोगों को बदतर सेवाएं मिलने, निजी फायदे के लिए प्रशासन में मनमाने हस्तक्षेप, सार्वजनिक धन की बर्बादी और पारदर्शिता एवं जवाबदेही के अभाव की वजह से सरकारी नीतियों के अप्रभावी अमल के रूप में सामने आता है।
उनकी इस दलील में भी दम है कि इन सबसे आम नागरिक की जिंदगी की गुणवत्ता प्रभावित होती है और यह स्वतंत्रता के अधिकारों की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। अब निगाहें इस पर हैं कि ४ अप्रैल को जब सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करेगा तो उसका क्या रुख सामने आता है। सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक पुलिस सुधारों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, लेकिन उस दिशा में आज तक प्रगति नहीं हुई। ऐसे मुद्दों पर गेंद आखिरकार राजनीति के पाले में ही आ जाती है। इसलिए न्यायिक हस्तक्षेप के साथ ऐसा जन दबाव बनाना जरूरी हो जाता है, जिससे राजनीतिक दल और सरकारें भी उन्हें अपने एजेंडे पर लेने को विवश हो जाएं। उम्मीद है कि पूर्व नौकरशाहों की यह पहल प्रशासनिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाने में मददगार होगी।
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