इसे भारतीय लोकतंत्र की एक ताकत के रूप में ही देखा जाना चाहिए कि सरकार को सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) में बदलाव का इरादा छोड़ना पड़ा है। इस बात पर लगभग पूरी सहमति है कि हाल के वर्षो में भारत में जो सबसे अच्छी बातें हुई हैं, उनमें एक आरटीआई का लागू होना भी है। यह कानून सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने का एक बड़ा औजार साबित हुआ है और इसकी वजह से आज देश का आम नागरिक खुद को अपेक्षाकृत ज्यादा सशक्त महसूस करता है। इसीलिए जब यह खबर आई कि सरकार इस कानून में संशोधन करने जा रही है, जिसके बाद कोई सूचना मांगने के लिए 250 शब्दों से ज्यादा की अर्जी नहीं दी जा सकेगी और सूचना मांगने वाले व्यक्ति की मौत के बाद वह सूचना संबंधित विभाग या मंत्रालय नहीं देगा, तो इस पर सिविल सोसायटी से लेकर राजनीतिक हलकों तक में बेचैनी देखी गई। आखिर इस कानून का इस्तेमाल कम पढ़े-लिखे लोग भी करते हैं, जो अर्जी लिखने में माहिर नहीं होते। अंदेशा यह था कि इससे ऐसे लोगों की तमाम अर्जियां ही रद्द हो जाएंगी।
दूसरे संशोधन के बारे में खुद सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) ने कहा कि यह आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या को न्योता देना है, क्योंकि जिनके हितों पर किसी सूचना के सामने आने से चोट पहुंचने वाली होगी, वे यह राह अख्तियार करने से बाज नहीं आएंगे। यह संतोष की बात है कि एनएसी में आम जन भावनाओं की कद्र एवं उनके हितों की वकालत करने वाले लोग हैं और यह संस्था सरकार एवं जनता के बीच एक तरह के संवाद का माध्यम बनी हुई है। आखिरकार सरकार ने जन भावनाओं की कद्र करते हुए और एनएसी की सलाह को सुनते हुए संशोधन का इरादा छोड़ दिया है। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसमें अंतत: वह होता है, जो जनता चाहती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है।
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