Sunday, May 8, 2011

आरटीई की लंबी डगर

शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) पर अमल का पहला साल महज तंद्रा तोड़ने जैसा रहा। अगर संतोष करना हो, तो कहा जा सकता है कि १ अप्रैल 2010 को लागू होने के बाद से यह कानून चर्चा में रहा है और विभिन्न राज्यों की सरकारों ने कम से कम यह जरूरत तो अवश्य महसूस की है कि कुछ करते हुए दिखा जाए। लेकिन जहां बात ठोस प्रगति की है, खासकर बुनियादी ढांचा मुहैया कराने के मोर्चे पर तो शुरुआत ढीली नजर आती है।

कानून पर अमल के बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का रिपोर्ट कार्ड यही संदेश देता है कि 6 से 14 साल के हर बच्चे को पढ़ाने का लक्ष्य साकार हो सके, इसके लिए अभी बहुत लंबी डगर तय की जानी है। पहली जरूरत यह है कि राज्य सरकारें इस कानून को अधिसूचित करें। पहले वर्ष में सिर्फ दस राज्यों ने ऐसा किया, जबकि 15 अन्य राज्यों ने इस बारे में नियमों का मसविदा तैयार किया। सिर्फ 11 राज्यों ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग की स्थापना की, जो इस कानून के संदर्भ में शिकायत निवारण संस्था है।

रिपोर्ट बताती है कि 6 से 14 साल के 80 लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, 20 फीसदी शिक्षकों के पास पेशेवर योग्यता नहीं है, 9 फीसदी स्कूलों में सिर्फ एक शिक्षक है और 41 फीसदी स्कूलों में छात्र शिक्षक का अनुपात 40:1 का है। ये सारे वे पहलू हैं, जिनमें सुधार के लिए धन और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। जहां इसकी जरूरत नहीं है, मसलन छात्रों की पिटाई रोकने, प्राइवेट ट्यूशन पर रोक लगाने या शिक्षकों की जवाबदेही तय करने जैसे कदमों में, तो वहां राज्यों का रिकॉर्ड बेहतर है। इस कानून को हकीकत में बदलने के लिए अगले तीन साल में पांच लाख से ज्यादा शिक्षकों और सवा 14 लाख से ज्यादा नई कक्षाओं की जरूरत है और रिपोर्ट कार्ड इस दिशा में शीघ्र प्रगति का भरोसा नहीं बंधाता।

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