अन्ना हजारे अनशन पर हैं। उन्होंने मुद्दा भ्रष्टाचार का उठाया है, जो आम आदमी के दिलों को छूता है। जाहिर है, उन्हें देश भर से खासा जनसमर्थन मिल रहा है। अन्ना हजारे चाहते हैं कि केंद्र सरकार लोकपाल विधेयक को अंतिम रूप देने से पहले विधेयक के उस मसविदे पर भी गौर करे, जिसे सिविल सोसायटी ने तैयार किया है और जिसे जनलोकपाल बिल कहा जा रहा है।
फिलहाल उनकी मांग है कि विधेयक के मसविदे पर विचार के लिए सरकार और सिविल सोसायटी की साझा समिति बनाई जाए। जब तक यह समिति नहीं बनेगी, अन्ना अनशन पर रहेंगे। सरकार ने सिविल सोसायटी की बात सुनी तो है, लेकिन सत्ता पक्ष का दावा है कि विधेयक बनाना सरकारी प्रक्रिया है और उसमें गैर-सरकारी लोगों को शामिल नहीं किया जा सकता। मगर अनशन को मीडिया और आम लोगों में मिल रहे समर्थन से सत्ता पक्ष विचलित भी नजर आता है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने हजारे का समर्थन कर सरकार की परेशानी और बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक राजनीतिक गतिरोध खड़ा होता नजर आता है। इसका हल सिर्फ तभी निकल सकता है, जब सभी संबंधित पक्ष संवेदनशीलता दिखाएं और इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं।
अन्ना हजारे की इस दलील में दम है कि यह लोकशाही है, जिसमें मालिक जनता है और वह जो चाहती है, जनप्रतिनिधि उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। मगर सिविल सोसायटी के एक हिस्से में जनप्रतिनिधियों को लेकर एक गजब का अपमान का भाव देखने को मिलता है। ऐसे भाव के साथ किसी सार्थक एवं लोकतांत्रिक संवाद की शुरुआत नहीं हो सकती। अगर दोनों में से कोई पक्ष अपनी सारी बात थोपने की जिद न करे, तब निश्चय ही संवाद का एक ऐसा पुल बन सकता है, जिसके परिणामस्वरूप अंतत: एक कारगर लोकपाल की स्थापना संभव हो सकेगी।
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