Sunday, May 8, 2011

गरीबों की गिनती

सुप्रीम कोर्ट भी अवाक रह गया, जब पिछले हफ्ते यह बात उसके सामने आई कि आज भी देहाती इलाकों में उनको ही गरीब माना जाता है, जो रोज 12 रुपए से कम खर्च करने की स्थिति में हैं। फिर कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आखिर योजना आयोग ने गिनती के पहले कैसे तय कर दिया कि गरीबों की संख्या एक सीमा से ज्यादा नहीं हो सकती? संदर्भ भोजन के अधिकार मामले पर चल रही सुनवाई का था और जब याचिकाकर्ता ने ये तथ्य अदालत के सामने लाए, तो माननीय जजों ने बीपीएल परिवारों के बारे में इस साल जून में होने वाले सर्वे की प्रभावशीलता पर कड़े सवाल पूछे। बीपीएल परिवारों की गिनती से पहले हुए अग्रिम अध्ययन के नतीजे भी सरकार की मुश्किलें बढ़ा सकते हैं। 254 गांवों में हुए इस अध्ययन का संकेत है कि सरकार ग्रामीण गरीबों की जितनी संख्या बताती है, वह उससे काफी ज्यादा है।

फिलहाल, 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक गांवों में 12 और शहरों में 17 रुपए की कसौटी प्रचलन में है। इसके मुताबिक देश में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी है। मगर उपभोग आधारित यह कसौटी अब खुद योजना आयोग में मान्य नहीं है। आयोग द्वारा बनाई गई सुरेश तेंडुलकर कमेटी ने गरीबों की संख्या 42 फीसदी होने का अनुमान लगाया था। नए सर्वे में उपभोग के बजाय विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कसौटियों को अपनाया जा रहा है। अग्रिम अध्ययन का संकेत है कि यह संख्या कम से कम तेंडुलकर कमेटी के करीब होगी। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो गरीबी रेखा से तो ऊपर हैं, लेकिन जिनकी आर्थिक हालत बेहतर नहीं है। क्या उन्हें कल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर दिया जाना चाहिए? यह सवाल सिविल सोसायटी के साथ न्यायपालिका के दायरे में भी है और भारत की आर्थिक सफलता की कहानी से भी इसका गहरा नाता है।

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