Sunday, May 8, 2011

धन और लक्ष्मी

दीपावली पर धन-संपदा और समृद्धि की देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है, इसलिए मुझे लगा कि हमारे समाज में संपदा की स्थिति पर कुछ बातें कही जानी चाहिए। मैं लक्ष्मी और धन का अंतर भी बताना चाहता हूं। इन दोनों को एक मान लिया जाता है, लेकिन ऐसा है नहीं।

मैं हाल ही की एक घटना से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। पिछले हफ्ते मैं प्रख्यात अमेरिकी निर्देशक ओलिवर स्टोन द्वारा संचालित एक कार्यक्रम में मौजूद था। यह कार्यक्रम मुंबई फिल्म फेस्टिवल में हो रहा था। ओलिवर हॉलीवुड सिनेमा की जीवित किंवदंती हैं और उन्होंने तकरीबन चालीस साल लंबे फिल्मी कॅरियर में विभिन्न विषयों पर फिल्में बनाई हैं।

उनकी एक चर्चित फिल्म है ‘वॉल स्ट्रीट’ (1984), जिसका सीक्वेल हाल ही में रिलीज हुआ है। फिल्म में माइकल डगलस ने गोर्डन गेक्को की भूमिका निभाई थी। एक चालाक, अनैतिक, लेकिन आकर्षक फाइनेंसर। गोर्डन गेक्को अमेरिकी सिने इतिहास के सबसे यादगार चरित्रों में से एक है। फिल्म में गेक्को का यह संवाद बहुत लोकप्रिय हुआ था : ‘ग्रीड इज गुड’ (लालच में बुराई नहीं।)

यह मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं ओलिवर से मिला। मैंने उनसे पूछा गोर्डन गेक्को इतना लोकप्रिय क्यों है? ओलिवर ने इसका बहुत सीधा सा जवाब दिया। उन्होंने कहा : ‘गेक्को इसलिए लोकप्रिय है, क्योंकि वह कामयाब और रईस है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसके तौर-तरीके अनैतिक हैं, या वह मतलबी और लालची है या बुरा इंसान है। ८क् के दशक में अमेरिकियों का ध्यान भौतिक संपदा पर इतना केंद्रित हो गया था कि उन्हें ‘ग्रीड इज गुड’ जैसे ही किसी जुमले की जरूरत थी, जो उनकी लालसा को न्यायोचित ठहरा सके।’

इस दीपावली पर, जब हम लक्ष्मी की पूजा करेंगे, तब हमें यह आत्ममंथन भी करना चाहिए कि कहीं हम भी तो धीरे-धीरे ऐसे ही नहीं बनते जा रहे हैं? नहीं तो हमारे राजनेता उन्हीं लोगों को क्यों लूटते, जो उन्हें वोट देकर जिताते हैं? क्यों वे अपनी जेबों में सैकड़ों करोड़ रुपए ठूंस लेते हैं,

जबकि संभव है वे इतना पैसा अपने जीवनकाल में खर्च भी न कर पाएं? आखिर क्यों सेना का कोई जनरल उस फ्लैट को हजम कर जाना चाहता है, जो किसी सैनिक की विधवा के लिए था? आखिर क्यों हमारे देश के पढ़े-लिखे, चतुरसुजान, इज्जतदार नौकरशाह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं?जवाब बहुत सरल है : पैसा। या दूसरे शब्दों में हमारे समाज में पैसे का बढ़ता प्रभाव।

मुझे गलत न समझें। पैसा बहुत जरूरी है। गरीबी एक तरह का रोग है और आज के वक्त में सम्मान से जीवन-यापन करने के लिए एक निश्चित मात्रा में भौतिक संपदा का होना जरूरी है। लेकिन, अक्सर ऐसा पाया जाता है कि लोगों को केवल इन्हीं चीजों के लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। हमारे राजनेता और सरकारी अफसर कुछ अन्य कारणों से भी पैसा चुराने के लिए प्रेरित होते हैं। मैं उनमें से कुछ के बारे में बात करना चाहूंगा।

पहला कारण यह कि पैसे से सामाजिक हैसियत हासिल होती है। आपका घर जितना बड़ा होगा, आपकी पार्टियां जितनी शानदार होंगी, आपकी सामाजिक हैसियत में उतना ही इजाफा होगा। ज्यादा से ज्यादा भौतिक चीजों के बाजार में आने से यह धारणा और मजबूत हुई है।

हमारे घर में जो अखबार आते हैं, वे महंगी चीजों के विज्ञापनों से भरे होते हैं, जैसे कि उन्हें खरीदना ही जीवन का सबसे अहम मकसद हो। हमें सबसे अमीर लोगों और सबसे महंगे घरों की फेहरिस्त पढ़ने में मजा आता है। टीवी में महंगी शादियों पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जाते हैं।

आज यह स्थिति है कि महंगे गहने और जूतियां पहनने वाली और डिजाइनर बैग रखने वाली किसी महिला की हैसियत सूती कपड़े की साड़ी पहनने वाली किसी स्कूल शिक्षिका की तुलना में ज्यादा समझी जाएगा। मोटी तनख्वाह पाने वाले लोग ज्यादा सुर्खियों में रहते हैं, बनिस्बत उन साहसी पत्रकारों के, जिन्होंने किसी घोटाले का भंडाफोड़ किया है या उन परोपकारी चिकित्सकों के, जो गरीबों का इलाज करते हैं। जाहिर है ऐसे सामाजिक ढांचे में पैसों के प्रति आकर्षण तो होगा ही।

दूसरा कारण यह कि पैसों से सामाजिक सुरक्षा का अहसास होता है। यह धन का वास्तविक लाभ जरूर है, लेकिन राजनेताओं में एक अजीब तरह की असुरक्षा की भावना होती है। यह उनके पेशे की प्रकृति है। किसी भी राजनेता को पता नहीं होता कि वह अगला चुनाव जीतने वाला है या नहीं।

अक्सर राजनेताओं द्वारा हड़पे जाने वालों पैसे का इस्तेमाल पार्टी के प्रचार अभियान में किया जाता है ताकि अगला चुनाव लड़ा जा सके। सत्ता में होना या सत्ता में बरकरार रहना जितना जरूरी है, शायद वास्तविक नेता या आदर्श नेता बनना उतना जरूरी नहीं होता।

नतीजा यह होता है कि हमारे द्वारा चुने गए नेता हमें ही लूटते-खसोटते रहते हैं। और चूंकि भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार वगैरह के आरोपों की परवाह नहीं करता और जाति, धर्म या वंश के आधार पर अपने नेता का चयन करता है, लिहाजा यह सिलसिला जारी रहता है।

बहरहाल, सामाजिक हैसियत और सामाजिक सुरक्षा महज दिमाग की उपज हैं। मजे की बात यह है कि अगर हम भीतर से खुद का मूल्य नहीं समझते, तो चाहे हमारे पास कितना ही पैसा क्यों न हो, हम कभी भी ‘हैसियत’ का अनुभव नहीं कर पाएंगे। इसीलिए तो भ्रष्ट लोग पागलों की तरह पैसों का ढेर लगाते रहते हैं और एक दिन रंगे हाथों धर लिए जाते हैं।

चूंकि उन्होंने पैसा कमाया नहीं, चुराया है, इसलिए उनका जमीर उन्हें कचोटता रहता है और वे कभी चैन से नहीं जी पाते। भ्रष्टाचार से पैसा कमाया जा सकता है, लक्ष्मी नहीं। लक्ष्मी वह संपदा है, जिसे ईमानदारी और नैतिकता से अर्जित किया जाए। लक्ष्मी अपने साथ शांति और संतोष को लेकर आती है।

अगर आप कभी लक्ष्मीजी का चित्र देखें तो आप पाएंगे कि उनके आसपास सोने के सिक्के हैं, लेकिन वे स्वयं कमल के फूल पर विराजमान हैं और उनके हाथों में भी कमल का फूल है। कमल का फूल शुद्धता, शांति, शुचिता, आध्यात्मिक मूल्यों और संसार की कीच में होने के बावजूद सौंदर्य का प्रतीक है। शांति के बिना संपदा का कोई मोल नहीं ।

इस दीपावली पर धन नहीं, लक्ष्मी के लिए प्रार्थना करें। जो लोग भ्रष्टाचार के जरिये पैसों का अंबार लगाते चलते हैं, उन्हें इस अंतर के बारे में नहीं पता। उनकी दीपावली की पार्टियों चाहे कितनी ही आलीशान क्यों न हों, लक्ष्मी उनके घर कभी नहीं आएंगी । - लेखक अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार हैं।

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