महिलाएं आज इस बात पर जरूर संतोष कर सकती हैं कि अनगिनत प्रतिबंधों और वर्जनाओं को तोड़ते हुए विश्व मंच पर अब वे अपनी संपूर्ण निजी पहचान के साथ उपस्थित हैं। बराबरी और मूलभूत अधिकारों के लिए उनके संघर्ष एवं उपलब्धियों के प्रतीक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की इस सौवीं सालगिरह पर यह देखना भविष्य के प्रति एक उम्मीद पैदा करता है कि महिलाएं सियासत से लेकर कारोबार, शिक्षा से लेकर जन सेवा और फौज से लेकर खेलकूद तक में सफलता की बेशुमार कहानियां लिख रही हैं। आज ऐसी धारणाएं गुजरे दिनों की बात हो गई हैं कि महिलाएं सिर्फ घर संभालने या बच्चों के पालन-पोषण की योग्यता ही रखती हैं। इस लिहाज से जर्मन नेता क्लारा जेटकिन ने 1910 में 8 मार्च को हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने के प्रस्ताव के साथ जो सपना देखा था, वह आज हकीकत में बदला हुआ नजर आता है। फिर भी यह इस कथा का सिर्फ एक अध्याय ही है।
अंतरराष्ट्रीय संधियों और विभिन्न देशों के कानूनों में महिलाओं को मिला बराबरी का दर्जा उन करोड़ों महिलाओं के लिए कोई मायने नहीं रखता, जो लैंगिक अन्याय से आज भी पीड़ित हैं। प्रगति और विकास की कहानियों के साथ-साथ देह-व्यापार का जारी रहना, कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ी प्रवृत्ति, दहेज उत्पीड़न और यौन अपराधों की बढ़ती संख्या जैसी घटनाएं विरोधाभास पैदा करती हैं। महिला दिवस की सार्थकता ऐसे विरोधाभासों के प्रति समाज को जागरूक बनाने में है। ऐसा होने के बजाय अगर यह दिन महज समारोहों, श्रंगार प्रसाधनों के विज्ञापन का अभियान चलाने और बधाइयां देने तक सीमित रह जाता है तो यह इस दिन की भावना के विपरीत होगा। महिलाओं के संघर्ष का सफर अभी लंबा है, आज इसी बात को याद करने का दिन है
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