Monday, May 9, 2011
राष्ट्र, राष्ट्रीयता और हम लोग
पहली बात जो इन संस्मरणों से उभरी, वह यह थी कि गांधी, नेहरू, तिलक और गोखले सरीखे नेताओं ने पहले अपने आंदोलन को आधार देने वाला एक मजबूत ढांचा जनता के बीच पैठकर उनके साथ गढ़ा और तब उनको सिविल नाफरमानी को प्रेरित किया। इनमें से कई नेता विदेशों से ऊंची तालीम लेकर स्वदेश आए थे और भारत ही नहीं, विश्व राजनीति की भी गहरी समझ रखते थे। वापसी के बाद उन्होंने अपना सुविधामय जीवन और पारिवारिक दाय त्यागकर छोटे शहरों और गांवों के आमजन का भरोसा हासिल किया। तभी वे सदियों से राजनीति की मुख्यधारा से कटे हुए हाशिये के समूहों में भी नए लोकतंत्र का सपना जगाने और अन्याय को दमदार चुनौती देने लायक हिम्मत जगा सके।
बयालीस का आंदोलन जब सड़कों पर आया तो वह एक भावनात्मक उफान ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय रूप से संगठित मोर्चा था, जिसके नेता या जनता के बीच अपने साध्य और साधनों की पवित्रता पर कोई आपसी शक या मतभेद नहीं था। दूसरी बात, जो नेता शीर्ष पर थे, उन्होंने समाज को सिविल सोसायटी और शेष के अलग-अलग खांचों में नहीं बांटा। हर वर्ग, हर समूह बार-बार जेल जाने और निजी जीवन में तमाम टूट-फूट झेलने के लायक माना गया। महिला हों या पुरुष, उन लोगों ने भी आंदोलन को अपने हक की लड़ाई या आजादी के बाद सत्ता में अपनी और अपने गुट की भागीदारी से नहीं जोड़ा।
इसी अहसास के चलते सरोजिनी नायडू और फिर कमला देवी ने दांडी यात्रा में महिलाओं को शामिल न करने की बापू की जिद के खिलाफ अपनी जिद बेझिझक भिड़ा दी और महिलाओं को नमक सत्याग्रह से तो जुड़वाया ही, बाद में मुंबई में घर और सरकारी दफ्तरों में घुसकर ‘पवित्र’ आजादी नमक की थैलियां बेचकर राशि हरिजन फंड में भी जमा कराई। ताकलाकोट के गांव में काम कर रही ब्रिटिश मूल की गांधीवादी सरला बहन ने भारतीय कलेक्टर को उसी की अदालत में बुरी तरह फटकार दिया कि वह हिंदुस्तानी होकर भी ब्रिटिश सरकार की तरफ से अपने लोगों की धर-पकड़ क्यों करवा रहा है और नतीजे में नजरबंद की गईं।
उसके बाद भी वे निर्भीकता से जंगलों में रात भर यात्रा कर पहाड़ी इलाके के भूमिगत आंदोलनकारियों के परिवारों तक जरूरी खर्चा-पानी पहुंचाती रहीं। इसी तरह कबायली हमले के बाद सीधे कश्मीर जाकर कमला देवी और सत्यवती मलिक ने घुसपैठ में मारे गए लोगों तक जब तक सरकारी मदद नहीं पहुंची, लगातार अपने स्रोतों से मदद पहुंचाई और दिल्ली में मेयर अरुणा आसफ अली ने नेहरू सरकार से शरणार्थियों के लिए जमीन हासिल ही नहीं की, उनको खुद अपनी अगुवाई में श्रमदान कर फरीदाबाद में नई बस्ती बसाने को प्रोत्साहित भी किया। आज विज्ञान ने भले ही आंदोलनकारी नेताओं और मीडिया को जनसंपर्क साधने या आंदोलनों की सचित्र खबरें पूरी दुनिया तक पहुंचाने में सक्षम बना दिया हो, लेकिन दूरियां पाटने वाले पुराने नि:स्वार्थ व बहुमुखी राष्ट्रीय-मानवीय सरोकार धीरे-धीरे चले गए हैं। संगीत की भाषा में कहें तो आर्केस्ट्रा युग बिखर गया है और साज (या ढपली) पर अपना-अपना राग गाया जा रहा है।
उधर, नया मीडिया भले ही विश्वबंधुता और लोकतांत्रिक पारदर्शिता का पैरोकार बनकर उभरा हो, पर मीडिया उद्योग और सत्ता हर कहीं क्षुद्र आग्रहों तले दमनकारिता और तानाशाही की तरफ ही लुढ़क रहे हैं। नतीजा यह कि हर कहीं जवानी छटपटा रही है, लेकिन भरोसेमंद नेता उसे नजर नहीं आ रहे। जंतर-मंतर पर दिखी भावनाओं का उफान बिला रहा है और नेताओं के खिलाफ शक और कानाफूसी का अप्रिय दौर शुरू हो गया है। यह सब साबित करता है कि आज जनांदोलनों का संकट दो धड़ों के नेताओं के बीच चुनाव का नहीं, बल्कि जो सतत विश्वास पर कायम हो, ऐसे व्यापक जनजुड़ाव की अनुपस्थिति का है। पर फिर भी फौजी तानाशाही से बचने और जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए राजनीतिक संस्थानों और निर्वाचित जननेताओं का लोकतंत्र में कोई विकल्प नहीं तो आज का बड़ा सवाल यह है कि नए नेतृत्व और राजनीतिक संस्थानों पर भरोसा बहाली कैसे सुनिश्चित हो?
जवाब सीधा है, जंतर-मंतर की बजाय जनता के बीच जाकर नेताओं को फिर से दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, कलाकारों, विस्थापितों के मूक बेतरतीब दुखों का शिव धनु उठाना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन के लघुतर नेता और नेत्रियां भी बड़ी सहजता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर बेझिझक शीर्ष नेतृत्व के आगे जा खड़े होते थे। यह ठीक है कि पुरानी विचारधाराएं दुनिया भर में मिट रही हैं, इसलिए विचारधारा से विहीन राजनीतिक दल अब ताकत के छोटे-बड़े पुंज भर हैं, जिनके बीच अलग-अलग तरह के वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि राजनेताओं और शासक वर्ग के कथित घोटाले और चुनाव काल या संसदीय सत्र के दौरान बिलों पर मतदान के लिए साधे गए जोड़-तोड़ ही महत्व रखते हैं। पर यह नाकाफी है।
मीडिया में थुलथुल दलालों के भौंडे चुटकुलों के साथ भ्रष्टाचार पर बॉलीवुड के स्वयंभू ज्ञानियों तथा दलालों से शर्मनाक भाव-ताव करने में धरे गए खबरचियों की जिरहों को सुन रहे देश को याद दिलाना जरूरी है कि दिल्ली की पहली महिला मेयर अरुणाजी, हस्तशिल्पियों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली कमला देवी और सुदूर हिमालयीन अंचल में कस्तूरबा के नाम से स्त्री शिक्षा की ज्योति ले जाने वाली विदेशिनी सरला बहन के पास अंतिम समय अपनी कहने को कोई संपत्ति, यहां तक कि सिर पर अपनी छत तक नहीं थी।
लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
ईश्वर का बंटवारा नहीं हो सकता'
भगवान राम विराजमान की अपील में सिर्फ जस्टिस एसयू खान व जस्टिस सुधीर अग्रवाल के फैसले को ही चुनौती दी गई है क्योंकि तीसरे जज डीबी शर्मा ने सभी याचिकाएं खारिज करते हुए फैसला भगवान राम विराजमान के हक में सुनाया था। जमीन के बंटवारे पर एतराज निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा को भी है। उसने भी बंटवारे का फैसला रद्द करने की मांग की है।
अयोध्या की विवादित जमीन बांटने पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक
हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस आफताब आलम और आरएम लोढ़ा की बेंच ने कहा है कि विवादित जमीन को किसी भी पक्ष ने बांटने की मांग नहीं की थी। ऐसे में विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटे जाने का इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 'अजीब' और 'चौंकाने' वाला है।
अयोध्या मामले में विभिन्न पक्षों की ओर से दायर याचिकाओं पर सोमवार को सुनवाई शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने के हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए इस मामले में यथास्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया है। विभिन्न हिंदू और मुस्लिम समूहों की ओर से दायर इन याचिकाओं में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी।
सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब गिलानी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मीडियाकर्मियों को अवगत कराते हुए कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन पर 7 जनवरी, 1993 की स्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि अयोध्या में 67.03 एकड़ की विवादित जमीन पर किसी तरह का धार्मिक कार्यक्रम न हो।’
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 सितंबर, 2010 के फैसले में अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन हिस्सों-मुस्लिम, हिंदुओं और निर्मोही अखाड़े के बीच बांटने के आदेश दिए थे। इस फैसले के खिलाफ निर्मोही अखाड़ा, अखिल भारत हिंदू महासभा, जमीयत उलमा-ए-हिंद और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आज फैसला सुनाया।
'ईश्वर का बंटवारा नहीं हो सकता'
भगवान राम विराजमान की ओर से भी एक याचिका दायर की गई है। भगवान राम विराजमान की याचिका में भूमि के बंटवारे का विरोध करते हुए कहा गया है कि ईश्वर का बंटवारा नहीं हो सकता। जब एक बार भूमि को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया गया है, तो फिर उसे अंदर का हिस्सा, बाहर का हिस्सा या केंद्रीय गुंबद में बांटना गलत है।
भगवान राम विराजमान की अपील में सिर्फ जस्टिस एसयू खान व जस्टिस सुधीर अग्रवाल के फैसले को ही चुनौती दी गई है क्योंकि तीसरे जज डीबी शर्मा ने सभी याचिकाएं खारिज करते हुए फैसला भगवान राम विराजमान के हक में सुनाया था। जमीन के बंटवारे पर एतराज निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा को भी है। उसने भी बंटवारे का फैसला रद्द करने की मांग की है।
यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और जमीयत उलेमा- ए- हिंद ने अपील में कहा है कि हाईकोर्ट का फैसला सुबूतों पर नहीं बल्कि आस्था पर आधारित है। वक्फ बोर्ड ने धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में समानता का मुद्दा भी उठाया है और कहा है कि संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता में सभी धर्मों को बराबरी पर रखा गया है, इसे सिर्फ हिंदुओं की आस्था और विश्वास के संदर्भ में परिभाषित करना गलत है।
वक्फ बोर्ड ने कहा है कि हाईकोर्ट के फैसले में राम जन्मस्थान घोषित करते समय हिन्दुओं की आस्था और विश्वास को संविधान में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत तरजीह दी गई है, लेकिन ऐसा करते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में दिया गया यह मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त है
Sunday, May 8, 2011
वे मेहमान हैं मेहरबान नहीं
क्या यह सिर्फ दो साल पहले ‘येस वी कैन’ और ‘होप’ के नारों पर सत्ता में आए राजनेता के प्रति अमेरिकियों के मोहभंग की शुरुआत है? शायद हां। मंदी के दौर में राष्ट्रपति पद के अभियान के दौरान जो नाटकीय उम्मीदें ओबामा ने जगाई थीं, खासकर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर, उन्हें वह पूरा नहीं कर सके हैं।
ओबामा की भारत यात्रा पर इस पराजय का क्या असर पड़ेगा? ज्यादा नहीं। भारत के लिए अहम मुद्दों पर अमेरिका शिखर यात्रा के उपलक्ष में अपने घोषित रुख बदलेगा, ऐसी उम्मीद न पहले थी, न अब है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट का सवाल हो या आतंक विरोधी लड़ाई में पाकिस्तान के साथ अमेरिका की कुटिल मित्रता का, वह सचाई तभी स्वीकार करेगा, जब खुद उसके हितों पर चोट पड़ेगी। चुनाव प्रचार में ओबामा भारत का हौआ खड़ा करते रहे हैं।
आउटसोर्सिग के नाम पर हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए वीजा की मुश्किलें भी पैदा की गईं। पराजय के बाद कोई कारण नहीं कि वह भारत के खिलाफ यह संरक्षणवादी रवैया बदलेंगे। इसलिए महाशक्ति मेहमान का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत सिर्फ अपनी ताकत के बूते आगे बढ़ सकता है। अब हमारे पास एक विशाल और उभरते बाजार की ताकत भी है, जिसकी भाषा अमेरिकी राष्ट्रपति सबसे बेहतर समझते हैं
भारत-अमेरिका संबंधों का नया अध्याय
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के शुरुआती दो दिनों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। ओबामा ने भारत की आर्थिक शक्ति और यहां व्यापार की संभावनाओं को जिस खूबी से पहचाना है, वह पहले दिन हुए व्यापारिक करारों की भरमार में साफ झलका है। पहले भारत अमेरिका की ओर अदब से देखता था, लेकिन अब अमेरिका भारत से मदद चाह रहा है।
भारत के इतिहास में यह बड़ी घटना है। इसके अच्छे दूरगामी परिणाम आने वाले दिनों में दिखेंगे। अमेरिका-भारत अलग-अलग क्षेत्रों में कंधे से कंधा मिलाकर विकास की राह पर चलेंगे, यह कुछ वर्ष पूर्व किसी ने सोचा नहीं था। ओबामा की भारत यात्रा के पहले दिन दोनों देशों में करीब 44 हजार करोड़ रुपयों के करार हुए हैं, जिससे अमेरिका में 50 हजार नौकरियां पैदा होंगी। भारत के कारण अमेरिका में इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा होने का यह पहला और असाधारण अनुभव है।
अमेरिका पहले भी विमान, उन्नत तकनीक, शस्त्र, इंजिन आदि भारत को बेचता रहा है, लेकिन तब भारत याचक की मुद्रा में रहता था। बदली परिस्थितियों में भारत अमेरिका के समकक्ष तो आज नहीं दिखता, पर वैश्विक कैनवास पर अमेरिका के साथ अलग धरातल पर बात करने की ताकत तो आज हममें दिखती है।
दोनों देशों में व्यापार बढ़ने के साथ ही सामरिक समझ भी बढ़ रही है। भारत एक बड़ा बाजार है। यहां का मध्यम वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। उधर अमेरिका आर्थिक मंदी से अभी पूरी तरह उबर नहीं सका है। ऐसे में भारत का सहयोग लेना अमेरिका के लिए जरूरी है। चीन का बढ़ता दबदबा भी एक अन्य कारण है।
मुंबई में ओबामा एक ठेठ व्यापारी (नई परिभाषा में सीईओ) की भूमिका में थे। उनके साथ अमेरिका के धनाढच्य उद्योगपति भी आए हैं और उन्होंने ही भारतीय उद्योग समूहों के साथ करार किए हैं। दिल्ली में ओबामा का दूसरा राजनीतिक रूप दिखेगा। यह अच्छा संदेश है कि अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी विकसित होने की राह पर है, फिर भी भारत के लिए संभलकर चलना ही बेहतर होगा।
एक हाईस्कूल के छात्र का देश को चलाना
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने शनिवार को हाईस्कूल के छात्र से अपनी बराबरी कर देश को अचंभित कर दिया। नई दिल्ली में देशी-विदेशी ज्ञानियों और कूटनीति से संबंधित अनेक लोगों के सामने दिया उनका बयान ताजा राजनीतिक दौर में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।
क्या डॉ सिंह वाकई कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं? क्या सर्वोच्च पद पर उनके 6-7 वर्ष इतने पीड़ादायक रहे हैं कि उन्हें लगता है कि एक के बाद एक परीक्षा के दौर से (अपने मन के विरुद्ध) गुजरना पड़ रहा है? यदि ऐसा है तो मसला काफी गंभीर है। यह सही है कि प्रधानमंत्री का पद कांटों का ताज है।
इसे हमेशा पहने रहना पड़ता है, जो कष्टप्रद भी है। देश चलाना यूं भी आसान काम नहीं है। फिर यह गठबंधन सरकार है। डॉ सिंह स्वयं सिद्धहस्त (और कुटिल) राजनीतिज्ञ नहीं हैं। इसलिए उन्हें हमेशा कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लगभग हर निर्णय के लिए निर्भर रहना पड़ता है। राहुल गांधी भी एक बड़े शक्ति केंद्र हैं।
इन सबके बीच अपनी बात कह पाना निश्चित रूप से इस जाने-माने अर्थशास्त्री के लिए एक परीक्षा से गुजरने जैसा ही होता होगा। डॉ सिंह को देश एक शांत स्वभाव का, सीधा-सादा नेता मानता है, जो कभी स्वयं की इच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे।
उन्होंने पहली पारी और दूसरी पारी के लगभग दो वर्ष देश की सरकार किस तरह चलाई, इस पर विभिन्न मत हैं। पर यह निश्चित है कि वे देश के इतिहास में सबसे कमजोर, निर्णय लेने में अक्षम और परावलंबी प्रधानमंत्री के रूप में जाने गए हैं।
ऐसे में उनकी निजी पीड़ा कभी न कभी बाहर आना स्वाभाविक है। जिस राजा प्रकरण को लेकर डॉ सिंह ने ऐसा अनपेक्षित बयान दे डाला,उससे उन पर हावी दबावों का पता चलता है। उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार असीमित रूप से बढ़ा।
वे ईमानदार होकर भी कड़ी कार्रवाई किसी के खिलाफ कभी नहीं कर पाए। इस कारण जनता में रोष तो है पर करुणा का भाव ज्यादा दिखता रहा। अब जब स्वयं प्रोफेसर रहे प्रधानमंत्री ही अपने आपको हाईस्कूल तक ले जाना चाहते हैं तो देश का भविष्य क्या होगा, यह सोचना पड़ेगा। ‘हाईस्कूल का यह छात्र’ आगे देश को कैसे चला पाएगा, इसका जवाब तो गठबंधन एवं गांधी परिवार से ही अपेक्षित है।
ताकि निष्कलंक और निष्पक्ष हो फौजी वर्दी
हथियारों की खरीद में अनियमितता की खबरें आना तो एक परंपरा है। सेना का ढांचा नागरिक प्रशासन के अंगों की तरह खुला और लचीला नहीं है। इसीलिए वहां से गड़बड़ी की खबरें बाहर आना आसान नहीं है। सैन्य प्रशासन के कठोर ढांचे में किसी वरिष्ठ अधिकारी के कामों पर सवाल उठाना हुकुमउदूली की श्रेणी में रख दिया जाता है। यानी सेना में गड़बड़ी की खबरें तभी बाहर आती हैं, जब कोई बड़ा मामला हो जाए। इसके बावजूद यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की महिमा और सेना की आंतरिक निगरानी प्रक्रिया का ही नतीजा है कि तमाम चीजें बाहर आ रही हैं और उन्हें ठीक करने के लिए नागरिक प्रशासन और अन्य संस्थाओं का हस्तक्षेप शुरू हो रहा है।
अगर सैनिकों को दिए जाने वाले सूखे राशन में गड़बड़ी की बात नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक (सीएजी) ने उठाई है तो कांदिवली में एक निजी फार्मा कंपनी को जमीन दिए जाने का मामला सेना के आंतरिक सूत्रों की जांच रपट में आया है। अच्छी बात यह है कि उसकी अनदेखी किए जाने की बजाय उस पर कार्रवाई करने और गड़बड़ी को दुरुस्त करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है, क्योंकि गड़बड़ियों के बावजूद हमारी सेना का ढांचा और संसदीय लोकतंत्र के लिए उसकी जवाबदेही की व्यवस्था यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों का मुकाबला करती है।
उसी का परिणाम है कि राशन की अनियमितताओं के मामले में सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने लोक लेखा समिति के सामने पेश होकर उसे ठीक करने का आश्वासन दिया। हालांकि नौसेना प्रमुख के देश में न होने के कारण उनका प्रतिनिधित्व उपप्रमुख ने किया, फिर भी यह मामला बेनजीर था। इससे यह उम्मीद बंधती है कि भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं होगी। इससे लोकतंत्र के साथ ही लोकतंत्र को सम्मान देती सेना का भी मान बढ़ता
बड़े लोगों की चेतावनी
देश के खामोश बहुमत की भी यही आवाज है। इन लोगों ने अपने पत्र में प्रशासनिक सुधार के लिए जो सुझाव दिए हैं, उनकी मांग राजनीतिक क्षेत्र, नागरिक समाज और न्यायपालिका की तरफ से लंबे समय से होती रही है। उदाहरण के लिए लोकपाल विधेयक साठ के दशक से ही अपेक्षित रहा है। इसी तरह से जांच एजेंसियों को राजनीति और कार्यपालिका के दबावों से मुक्त रखने की मांग भी नई नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सन् 2006 में ऐसा ही सुझाव दिया था और हाल में एक मुकदमे के फैसले में फिर उसे दोहराया है। लेकिन जी-14 के नाम से संबोधित किए जा रहे इस पत्र की एक मांग जरूर नए संदर्भ में है। वह न्यायिक क्षमता वाले व्यक्तियों के नेतृत्व में ऐसी संवैधानिक संस्थाओं का निर्माण करने के बारे में है, जो विशेषाधिकार के तहत लिए जाने वाले तमाम फैसलों की निगरानी करें। व्यवस्था में पारदर्शिता व जवाबदेही कायम करने के लिए जी-14 के इस मुंबई मसविदे पर चर्चा होनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके, इसे अमल में लाया जाना चाहिए।
अपने दिल में झांकिए
सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से ऐसी ही दलीलें सॉलिसीटर जनरल गोपाल सुब्रrाण्यम ने पेश कीं। मसलन, सरकार को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की नजाकत, बैंकिंग गोपनीयता कानूनों और दोहरे कराधान से बचने के समझौतों का ख्याल करना है। लेकिन ये दलीलें अदालत को संतुष्ट नहीं कर सकीं और माननीय खंडपीठ ने सीधा सवाल पूछा कि आखिर सरकार ने विदेशों में जमा धन का पता लगाने और उसे वापस लाने के लिए क्या कदम उठाए हैं?
कोर्ट ने ध्यान दिलाया कि यह रकम खरबों में है और पूछा कि आखिर उसमें कुल कितने शून्य मौजूद हैं? यह सरकार के रुख से अदालत के असंतोष की ही झलक है कि माननीय न्यायाधीशों को यह याद दिलाना पड़ा कि सुनवाई लोकहित के मामले पर हो रही है और सुप्रीम कोर्ट को लोकहित से जुड़े सवाल पूछने से कोई नहीं रोक सकता। अब सरकार के लिए यह अपनी अंतरात्मा में झांकने का विषय है कि ऐसे अहम मुद्दे पर वह आज कठघरे में खड़ी क्यों नजर आ रही है।
गौरतलब है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति के मामले में भी यूपीए सरकार सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव के रास्ते पर चलती नजर आई है। खुद प्रधानमंत्री का यह प्रिय जुमला है कि सीजर की पत्नी को संदेहों से परे होना चाहिए? क्या उनकी सरकार को आज भ्रष्टाचार जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर संदेहों से ऊपर माना जा सकता है, यह उनके और उनकी पार्टी के नेताओं से लिए गहन आत्ममंथन का विषय है।
शिकायतें हैं तो गर्व भी
अगर हम याद करें कि आज जिन बहुत-सी बातों को हम तयशुदा मानते हैं, वो 1947 में उतनी निश्चित नहीं थीं। मसलन, भारत अपनी एकता और अखंडता को कायम रख सकेगा, यहां एक स्थिर व्यवस्था बन सकेगी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का पूरी दुनिया के लिए एक मॉडल तैयार हो सकेगा, इन सबका तब सिर्फ सपना ही देखा जा सकता था। लेकिन आज ये सब हमारे सामने साकार रूप में मौजूद हैं। इस गणतंत्र के पूर्वजों ने जिस वैज्ञानिक और आर्थिक संरचना की नींव डाली, उसकी बदौलत भारत आज दुनिया की एक उभरती हुई आर्थिक ताकत है।
जाहिर है, समस्याएं अभी और भी हैं। बल्कि गंभीर समस्याएं हैं। कुछ ऐसी समस्याएं हैं, जिनसे अक्सर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि इनमें से बहुत-सी समस्याएं हमारी पुरातन व्यवस्था और लंबी गुलामी का परिणाम हैं। इनका संबंध हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकासक्रम के स्तर से है।
दुनिया का कोई समाज इस संदर्भ से कटकर विकास नहीं कर पाया है। हम भी अपनी समस्याओं से उलझते हुए उनका समाधान ढूंढ़ने और प्रगति एवं विकास का रास्ता बनाने की जद्दोजहद में हैं और कामयाबी भी पा रहे हैं। इसलिए शिकायतें अपनी जगह भले सही हों, लेकिन खुद और अपने गणतंत्र पर गर्व करने की भी हमारे पास पर्याप्त वजहें हैं।
जन इच्छा की जीत
दूसरे संशोधन के बारे में खुद सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एनएसी) ने कहा कि यह आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या को न्योता देना है, क्योंकि जिनके हितों पर किसी सूचना के सामने आने से चोट पहुंचने वाली होगी, वे यह राह अख्तियार करने से बाज नहीं आएंगे। यह संतोष की बात है कि एनएसी में आम जन भावनाओं की कद्र एवं उनके हितों की वकालत करने वाले लोग हैं और यह संस्था सरकार एवं जनता के बीच एक तरह के संवाद का माध्यम बनी हुई है। आखिरकार सरकार ने जन भावनाओं की कद्र करते हुए और एनएसी की सलाह को सुनते हुए संशोधन का इरादा छोड़ दिया है। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसमें अंतत: वह होता है, जो जनता चाहती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है।
खूनी कट्टरपंथ
एक परमाणु हथियार संपन्न देश में ऐसा होना पड़ोसी देशों और पूरी दुनिया के लिए क्या मतलब रखता है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। यह खतरा इसलिए पैदा हुआ है, क्योंकि पाकिस्तान के सत्ता तंत्र ने कट्टरपंथ और उग्रवाद के माध्यम से सामरिक एवं रणनीतिक मकसदों को पूरा करने का खतरनाक खेल खेला, जो अब पलटकर खुद उसके गले पड़ गया है। जाहिर है, कट्टरपंथी तत्व लोकतंत्र एवं उदार समाज की स्थापना नहीं होने देना चाहते और जो भी ऐसे समाज की वकालत करता है, उससे निपटने का वे सिर्फ एक ही तरीका जानते हैं। पाकिस्तान की उदारवादी ताकतें इस दुश्चक्र से निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ़ पा रही हैं। यह भारत और तमाम दुनिया के लिए गहरी चिंता का विषय है।
प्रगतिशील पहल
गौरतलब यह है कि बच्चों से ज्यादातर यौन अपराध अपने ही घरों में, बाल सुरक्षागृहों में या पुलिस या सुरक्षा बलों द्वारा किए जाते हैं। एक और प्रगतिशील प्रावधान यह है कि 16 साल से बड़ी उम्र की युवती से सहमति से बनाए गए यौन संबंध को अपराध मुक्त कर दिया गया है। यह बदले जमाने की जरूरतों के मुताबिक है। बहरहाल, इस पूरे संदर्भ में यह बात जरूर ध्यान में रखने की है कि कानून चाहे कितना ही अच्छा हो, असली चुनौती उस पर ठीक से अमल कराने की होती है। जांच एजेंसियों की कमजोरी या इरादे में कमी की वजह से बहुत से अच्छे कानून अपना मकसद हासिल नहीं कर पाए हैं। बलात्कार एवं दहेज उत्पीड़न के खिलाफ कानून भी इस बात की मिसाल हैं। जाहिर है, अगर ये व्यवस्थाएं अपने पुराने हाल में ही रहीं, तो बच्चों को यौन उत्पीड़न से निजात दिलाने की ताजा कोशिश का हश्र भी शायद बहुत बेहतर नहीं होगा।
संघर्ष का लंबा सफर
अंतरराष्ट्रीय संधियों और विभिन्न देशों के कानूनों में महिलाओं को मिला बराबरी का दर्जा उन करोड़ों महिलाओं के लिए कोई मायने नहीं रखता, जो लैंगिक अन्याय से आज भी पीड़ित हैं। प्रगति और विकास की कहानियों के साथ-साथ देह-व्यापार का जारी रहना, कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ी प्रवृत्ति, दहेज उत्पीड़न और यौन अपराधों की बढ़ती संख्या जैसी घटनाएं विरोधाभास पैदा करती हैं। महिला दिवस की सार्थकता ऐसे विरोधाभासों के प्रति समाज को जागरूक बनाने में है। ऐसा होने के बजाय अगर यह दिन महज समारोहों, श्रंगार प्रसाधनों के विज्ञापन का अभियान चलाने और बधाइयां देने तक सीमित रह जाता है तो यह इस दिन की भावना के विपरीत होगा। महिलाओं के संघर्ष का सफर अभी लंबा है, आज इसी बात को याद करने का दिन है
सुधारों की गुहार
उनकी इस दलील में भी दम है कि इन सबसे आम नागरिक की जिंदगी की गुणवत्ता प्रभावित होती है और यह स्वतंत्रता के अधिकारों की गारंटी देने वाले संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। अब निगाहें इस पर हैं कि ४ अप्रैल को जब सुप्रीम कोर्ट इस पर सुनवाई करेगा तो उसका क्या रुख सामने आता है। सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक पुलिस सुधारों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, लेकिन उस दिशा में आज तक प्रगति नहीं हुई। ऐसे मुद्दों पर गेंद आखिरकार राजनीति के पाले में ही आ जाती है। इसलिए न्यायिक हस्तक्षेप के साथ ऐसा जन दबाव बनाना जरूरी हो जाता है, जिससे राजनीतिक दल और सरकारें भी उन्हें अपने एजेंडे पर लेने को विवश हो जाएं। उम्मीद है कि पूर्व नौकरशाहों की यह पहल प्रशासनिक सुधारों के पक्ष में माहौल बनाने में मददगार होगी।
घोटालों का घटाटोप
बहरहाल, अब कॉरपोरेट जगत भ्रष्टाचार जारी रहने या बढ़ने में अपनी भूमिका स्वीकार करने को तैयार दिख रहा है। एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख के बाद अब इस सर्वे में 68 फीसदी अधिकारियों ने माना कि कंपनियां भी अपने फायदे के लिए रिश्वत से सरकारी अधिकारियों को लुभाती हैं। चूंकि भारत में कानून घूस लेने वालों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं, इसलिए कंपनियों को भ्रष्ट तरीके अपनाने में दिक्कत महसूस नहीं होती। सवाल है कि भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों पर कारगर अमल क्यों नहीं होता?
बड़ी कंपनियों के अधिकारियों में 20 फीसदी इसका कारण राजनीतिक हस्तक्षेप को ठहराते हैं, जबकि 18 फीसदी न्यायिक फैसलों में देरी को 15 प्रतिशत कड़े जुर्माने के अभाव और 14 प्रतिशत अधिकारी जांच की जिम्मेदारी अलग-अलग एजेंसियों के हाथ में होने को मानते हैं। सर्वे में उभरी एक और दिलचस्प राय यह है कि कॉरपोरेट सेक्टर में सबसे ज्यादा भ्रष्ट क्षेत्र रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन और दूरसंचार हैं। बहरहाल, सर्वे रिपोर्ट के इस निष्कर्ष पर जरूर ध्यान दिया जाना चाहिए - ‘जिस समय भारत नौ फीसदी विकास दर का लक्ष्य लेकर चल रहा है, बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण कड़ी मेहनत से हासिल सफलता पर अब काले बादल मंडराने लगे हैं।’
समाज के लिए चेतावनी
अगर छह साल से कम उम्र में यह अनुपात देखें तो पंजाब, दिल्ली और गुजरात जैसे विकसित बताए जाने वाले राज्यों में 125 लड़कों पर 100 लड़कियां हैं। कनाडा के मेडिकल एसोसिएशन की पत्रिका में छपे इस अध्ययन के मुताबिक भारत में कन्या भ्रूण हत्या रोकने का कानून तो है, लेकिन उसका धड़ल्ले से उल्लंघन होता है। इसमें रजिस्टर्ड डॉक्टर, अस्पताल और क्लीनिक सभी शामिल हैं। भारत में 34 हजार से ऊपर रजिस्टर्ड अल्ट्रासाउंड क्लीनिक हैं, जिनमें से अनेक क्लीनिक तो गर्भ के अंदर पल रहे बच्चे का लिंग जानने का केंद्र बने हुए हैं।
आम रुझान यह है कि अगर पहली संतान लड़की हो तो दूसरी लड़की के जन्म लेने की संभावना 54 फीसदी घट जाती है। सांस्कृतिक तौर पर स्त्रियों की दोयम हैसियत और लड़कियों को बोझ मानने का पारंपरिक नजरिया आज भी ऐसे जड़ें जमाए है कि ऐसे अपराध में शामिल लोगों को न तो सामाजिक अपमान झेलना पड़ता है और न ही कानून लागू करने वाली एजेंसियां इसे उचित गंभीरता से लेती हैं। मगर यह अपराध अब घोर लैंगिक असंतुलन पैदा कर रहा है। इस लिहाज से ताजा अध्ययन एक चेतावनी है, जिसकी अनदेखी व्यापक हितों की बलि चढ़ाकर ही की जा सकती है।
गरीबों की गिनती
फिलहाल, 2004-05 के नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक गांवों में 12 और शहरों में 17 रुपए की कसौटी प्रचलन में है। इसके मुताबिक देश में गरीबों की संख्या 27.5 फीसदी है। मगर उपभोग आधारित यह कसौटी अब खुद योजना आयोग में मान्य नहीं है। आयोग द्वारा बनाई गई सुरेश तेंडुलकर कमेटी ने गरीबों की संख्या 42 फीसदी होने का अनुमान लगाया था। नए सर्वे में उपभोग के बजाय विभिन्न सामाजिक-आर्थिक कसौटियों को अपनाया जा रहा है। अग्रिम अध्ययन का संकेत है कि यह संख्या कम से कम तेंडुलकर कमेटी के करीब होगी। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो गरीबी रेखा से तो ऊपर हैं, लेकिन जिनकी आर्थिक हालत बेहतर नहीं है। क्या उन्हें कल्याणकारी योजनाओं से वंचित कर दिया जाना चाहिए? यह सवाल सिविल सोसायटी के साथ न्यायपालिका के दायरे में भी है और भारत की आर्थिक सफलता की कहानी से भी इसका गहरा नाता है।
आशा की नई किरण
इसके साथ ही सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार विरोधी संधि का भी अनुमोदन करने का फैसला किया है, जिस पर भारत ने 2005 में दस्तखत किए थे। इतने समय तक अनुमोदन न करने के पीछे दलील दी जाती रही कि इस संधि को लागू करने के लिए आवश्यक कानूनी व्यवस्था देश में नहीं है। हालांकि यह जवाब देने की कोशिश कभी नहीं की गई कि यह व्यवस्था न होने के लिए जिम्मेदार कौन है? बहरहाल, एक और सकारात्मक घटना पिछले दिनों यह हुई कि केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय ने नए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया के बारे में सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के मुताबिक आदेश जारी किए।
कह सकते हैं कि यूपीए सरकार ये सारी पहल इसलिए कर रही है, क्योंकि पिछले कई महीनों से वह घोटालों के लगातार खुलासों से राजनीतिक रूप से घिरती चली गई है। संभव है कि यह मनमोहन सरकार की अपनी छवि और साख बहाल करने की एक कोशिश हो। लेकिन इस घटनाक्रम का सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे देश में भ्रष्टाचार विरोधी संस्थाएं और कानूनी व्यवस्था मजबूत होगी। इनका एक नतीजा यह हो सकता है कि पीजे थॉमस जैसे प्रकरण से देश को दोबारा न गुजरना पड़े।
चर्चा में परोपकार
उन दोनों बड़ी शख्सियतों की पहली पहचान उद्योग क्षेत्र में कुछ नया करने एवं बेशुमार धन कमाने से बनी। भारत में उनकी यात्राओं से माहौल बनता है, तो उसके पीछे भी असल में यही पहचान होती है। अब वे परोपकार की बात करते हैं तो लोग उसे भी सुनते हैं। ये बातें अपनी जगह सही हैं और उपयोगी भी। लेकिन ये कुछ प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ जाती हैं। धर्म जब परोपकार की बात करते हैं तो साथ ही धन कमाने में नैतिक साधनों के उपयोग और ईमानदारी पर भी जोर देते हैं। परोपकार की इस आधुनिक चर्चा में यह बात गायब है।
अगर उद्योग जगत स्वस्थ प्रतिस्पर्धा एवं नियमों पर सख्ती से अमल करते हुए चले और आगे बढ़ने के लिए सिस्टम को भ्रष्ट करने से बाज आए, तो ऐसी व्यवस्था विकसित हो सकती है, जिसमें जरूरतमंदों की संख्या घटती जाएगी। कॉपरेरेट की सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) की अवधारणा पिछले कुछ वर्षो में सामने आई है। अगर कंपनियां इसका ईमानदारी से पालन करें, तो अलग से परोपकार करने की जरूरत शायद नहीं पड़ेगी। विकास के लिए जिनके संसाधन लिए जाते हैं, अगर मुनाफे का एक हिस्सा उनके बीच बांटा जाए, तो हम एक बेहतर समाज बना सकते हैं। बफेट व गेट्स को यह श्रेय जरूर है कि उन्होंने परोपकार को चर्चा में लाकर इन सवालों को उठाने का मौका दिया है। इन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।
भारत की नई तस्वीर
गौरतलब है कि जहां पुरुषों में साक्षरता वृद्धि की दर 7 फीसदी रही, वहीं स्त्रियों में यह बढ़ोतरी तकरीबन 12 फीसदी हुई। आबादी में स्त्रियों की कुल मौजूदगी प्रति 1000 पुरुष पर अब 933 से बढ़कर 940 है, जो महिलाओं की सेहत एवं समाज में उनकी स्थिति में सुधार की झलक देता है। मगर चिंताजनक पहलू छह साल से कम उम्र के वर्ग में प्रति 1000 लड़कों पर लड़कियों का महज 914 रह जाना है, जो कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती प्रवृत्ति और बेटे को प्राथमिकता दिए जाने की ओर इशारा करता है।
साफ है कि यदि इस पर रोक नहीं लगी, तो भविष्य में भारत जनसंख्या संबंधी गहरे संकट में फंस जाएगा। मगर आशाजनक पहलू यह है कि यदि अन्य गंभीर मसलों पर हमने नियंत्रण पा लिया है तो इस सांस्कृतिक समस्या पर भी अभियान चलाकर और कानूनों का सख्ती से पालन कर जरूर प्रगति की जा सकती है। जनसंख्या के ताजा आंकड़े नवजागृत भारत की कहानी बयां करते हैं। अब यह हमारा दायित्व है कि हम इस कहानी को उसके चरमोत्कर्ष तक ले जाएं।
जय, जय, जय, जय हे..
आरटीई की लंबी डगर
कानून पर अमल के बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का रिपोर्ट कार्ड यही संदेश देता है कि 6 से 14 साल के हर बच्चे को पढ़ाने का लक्ष्य साकार हो सके, इसके लिए अभी बहुत लंबी डगर तय की जानी है। पहली जरूरत यह है कि राज्य सरकारें इस कानून को अधिसूचित करें। पहले वर्ष में सिर्फ दस राज्यों ने ऐसा किया, जबकि 15 अन्य राज्यों ने इस बारे में नियमों का मसविदा तैयार किया। सिर्फ 11 राज्यों ने बाल अधिकार संरक्षण आयोग की स्थापना की, जो इस कानून के संदर्भ में शिकायत निवारण संस्था है।
रिपोर्ट बताती है कि 6 से 14 साल के 80 लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं, 20 फीसदी शिक्षकों के पास पेशेवर योग्यता नहीं है, 9 फीसदी स्कूलों में सिर्फ एक शिक्षक है और 41 फीसदी स्कूलों में छात्र शिक्षक का अनुपात 40:1 का है। ये सारे वे पहलू हैं, जिनमें सुधार के लिए धन और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। जहां इसकी जरूरत नहीं है, मसलन छात्रों की पिटाई रोकने, प्राइवेट ट्यूशन पर रोक लगाने या शिक्षकों की जवाबदेही तय करने जैसे कदमों में, तो वहां राज्यों का रिकॉर्ड बेहतर है। इस कानून को हकीकत में बदलने के लिए अगले तीन साल में पांच लाख से ज्यादा शिक्षकों और सवा 14 लाख से ज्यादा नई कक्षाओं की जरूरत है और रिपोर्ट कार्ड इस दिशा में शीघ्र प्रगति का भरोसा नहीं बंधाता।
अन्ना का अनशन
फिलहाल उनकी मांग है कि विधेयक के मसविदे पर विचार के लिए सरकार और सिविल सोसायटी की साझा समिति बनाई जाए। जब तक यह समिति नहीं बनेगी, अन्ना अनशन पर रहेंगे। सरकार ने सिविल सोसायटी की बात सुनी तो है, लेकिन सत्ता पक्ष का दावा है कि विधेयक बनाना सरकारी प्रक्रिया है और उसमें गैर-सरकारी लोगों को शामिल नहीं किया जा सकता। मगर अनशन को मीडिया और आम लोगों में मिल रहे समर्थन से सत्ता पक्ष विचलित भी नजर आता है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने हजारे का समर्थन कर सरकार की परेशानी और बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक राजनीतिक गतिरोध खड़ा होता नजर आता है। इसका हल सिर्फ तभी निकल सकता है, जब सभी संबंधित पक्ष संवेदनशीलता दिखाएं और इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं।
अन्ना हजारे की इस दलील में दम है कि यह लोकशाही है, जिसमें मालिक जनता है और वह जो चाहती है, जनप्रतिनिधि उसकी अनदेखी नहीं कर सकते। मगर सिविल सोसायटी के एक हिस्से में जनप्रतिनिधियों को लेकर एक गजब का अपमान का भाव देखने को मिलता है। ऐसे भाव के साथ किसी सार्थक एवं लोकतांत्रिक संवाद की शुरुआत नहीं हो सकती। अगर दोनों में से कोई पक्ष अपनी सारी बात थोपने की जिद न करे, तब निश्चय ही संवाद का एक ऐसा पुल बन सकता है, जिसके परिणामस्वरूप अंतत: एक कारगर लोकपाल की स्थापना संभव हो सकेगी।
प्रभावी लोकपाल के लिए
घोटाले की गहरी जड़ें
kalmadi ka patan
जगजाहिर है कि ऐसा उन्होंने खेल संघों में अपने लोगों को अनुचित प्रश्रय देकर उनकी वफादारी खरीदते हुए किया है। खेल संघों में यह रुझान ऊपर से नीचे तक इस हद तक कुंडली जमाए बैठा है कि भारतीय खेलों का विकास आज दूर की कौड़ी नजर आता है। खेल संघों पर बैठे ताकतवर लोगों की मनमर्जी के मुताबिक न चलने का क्या परिणाम होता है, इसे हम हॉकी कोच होजे ब्रासा और फुटबॉल कोच बॉब हॉटन के अंजाम से समझ सकते हैं। इन अधिकारियों की ताकत का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि खेल संघों के संचालन में सुधार के मुद्दे पर वे सीधे सरकार को चुनौती देने की हद तक चले गए।
अधिकारियों के कार्यकाल और उम्र सीमा लागू करने की सरकार की योजना को उन्होंने ठेंगा दिखाया। इसलिए कलमाडी की गिरफ्तारी के साथ खेल मंत्री अजय माकन का ओलिंपिक संघ से नया अध्यक्ष चुनने के लिए कहना और इस संबंध में अटॉर्नी जनरल से सलाह लेने का फैसला स्वागतयोग्य पहल है। कलमाडी का पतन भारतीय खेल को स्वार्थी अधिकारियों के शिकंजे से छुड़ाने का एक मौका साबित हो सकता है, बशर्ते सरकार पक्का इरादा दिखाती रहे। अगर इस राह में अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति से भी टकराव अपरिहार्य हो जाता है, तो हिचकने की जरूरत नहीं है। खेल प्रशासन को जवाबदेह बनाना ऐसा उद्देश्य है, जिसके लिए अगर कोई कीमत है तो उसे चुकाने को तैयार रहना चाहिए।
बने एक समग्र नीति
भारत, बल्कि पूरी दुनिया में, परमाणु कार्यक्रम को संचालित करने वाली व्यवस्था की सबसे कड़ी आलोचना यही है कि यह तंत्र लोकतांत्रिक जवाबदेही से परे रहते हुए और घोर गोपनीयता के बीच काम करता है। अब सरकार ने संसद से पास विधेयक के जरिए परमाणु ऊर्जा विनियमन बोर्ड के गठन का फैसला किया है। यानी यह एक वैधानिक संस्था होगी, जो संसद के प्रति जवाबदेह रहेगी।
भविष्य में परमाणु ऊर्जा संबंधी परियोजनाओं को अंतिम रूप यही संस्था देगी और जाहिर है, उसकी बारीकियों पर संसद में बहस हो सकेगी, संसद की स्थायी समिति उस पर विचार कर सकेगी और संस्था से बाहर के वैज्ञानिक एवं विशेषज्ञ उसकी जांच-परख कर उसमें अपना योगदान दे सकेंगे। साथ ही सुलग रहे जैतापुर में लगने वाले सभी छह रिएक्टरों के लिए अलग सुरक्षा व्यवस्था और संचालन एवं रखरखाव प्रणाली लागू करने का एलान किया है। मगर कुछ प्रश्न अनुत्तरित हैं।
उनका संबंध संयंत्र लगाने के लिए जमीन अधिग्रहण और संबंधित इलाके के आसपास के लोगों की आजीविका संबंधी चिंताओं से है। जैतापुर के मछुआरे डरे हुए हैं कि प्रस्तावित परमाणु पार्क के असर से निकट समुद्र में मछली मारना कठिन हो जाएगा, जबकि उनके लिए मुआवजे या पुनर्वास की व्यवस्था नहीं है।
बेहतर होता, सरकार समग्र नीति पेश करती, जिसमें परमाणु सुरक्षा के साथ-साथ उस प्रभावित आबादी की आजीविका संबंधी चिंताओं का भी हल होता, जिसकी जमीन सीधे तौर पर परियोजना के लिए अधिगृहीत नहीं होने वाली है। देश को परमाणु ऊर्जा संबंधी अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करनी है तो समग्र नीति ज्यादा समय नहीं टाली जा सकती।
संसदीय मर्यादा पर आंच
हालात ऐसे मोड़ ले सकते हैं, इसका अंदेशा पहले से था। घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन हो जाने के बाद जेपीसी और पीएसी के अधिकार एवं कार्यक्षेत्र का विवाद खड़ा हो गया। अगर इरादा घोटाले की तह तक जाने का होता तो इस विवाद का हल निकाला जा सकता था। पीएसी अगर सीएजी की रिपोर्ट की रोशनी में खुद को घोटाले के वित्तीय पक्ष तक सीमित कर लेती और राजनीतिक एवं नीतिगत मसलों को जेपीसी के लिए छोड़ दिया जाता, तो देश के सामने इस घोटाले की शायद ज्यादा ठोस एवं विश्वसनीय तस्वीर सामने आ सकती थी।
मगर ऐसा लगता है कि जहां सत्ता पक्ष को जेपीसी के गठन में ऐसे विवादों के जरिए कठोर तथ्यों को धुंधला कर देने का रास्ता नजर आया, वहीं विपक्ष ने शायद यह समझ लिया कि उसके पास अब सरकार को घेरने के दो मंच हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि समिति के सदस्यों ने पीएसी के अध्यक्ष पर रिपोर्ट लेखन को आउटसोर्स करने और समिति की कार्यवाही पूरी होने से पहले ही रिपोर्ट लिख लेने जैसे आरोप लगाए हैं। जब आरोप-प्रत्यारोप इस हद तक पहुंच जाएं, तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि देश की सर्वोच्च प्रातिनिधिक संस्था में अहम मुद्दों पर आम सहमति की राष्ट्रीय आकांक्षा के ऊपर दलों का सियासी स्वार्थ कितना हावी हो जाता है।
शिक्षा के साथ खिलवाड़
इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के पेपर लीक होने की सूचना पहले ही प्राप्त हो जाने के कारण परीक्षा काफी देरी से शुरू हुई, लेकिन यदि यह सूचना लीक न हुई होती तो बहुत से ऐसे विद्यार्थी भी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर लेते, जो उसके योग्य नहीं हैं। आज देश में चारों ओर भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जाहिर है कि शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। वह घटना अभी बहुत पुरानी नहीं हुई है, जब फर्जी प्रमाणपत्रों के आधार पर पायलट जैसे महत्वपूर्ण पद पर काम करने वाले लोगों का मामला सामने आया था। यह इसलिए और भी ज्यादा चिंता का विषय है क्योंकि अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा जैसी महत्वपूर्ण परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थी कल देश के गंभीर और जिम्मेदार पदों पर होंगे और उनके कंधों पर महत्वपूर्ण दायित्व होंगे।
यदि इसकी शुरुआत ही भ्रष्टाचार, नकल व झूठ की बुनियाद पर हो तो इसके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं। पेपर लीक होने की यह घटना इस गंभीर खतरे की ओर भी इशारा करती है कि आज देश भ्रष्टाचार में इस कदर डूबा हुआ है कि यहां पैसे के लिए कुछ भी किया जा सकता है। सही-गलत, उचित-अनुचित की कोई सीमा नहीं रह गई है। अगर शिक्षा जैसा क्षेत्र भी भ्रष्टाचार और पैसे के इस खेल से अछूता नहीं रह गया है तो भविष्य के खतरों की कल्पना की जा सकती है। ऐसे में देश के महत्वपूर्ण पदों पर भी योग्यता नहीं, बल्कि नकल और जोड़-तोड़ के दम पर पहुंचने का अंदेशा रहेगा।
कठघरे में पाकिस्तान
आखिर ओसामा जहां मारा गया, वह कोई वजीरिस्तान के निर्जन प्रदेश की गुफा नहीं थी, बल्कि वह राजधानी इस्लामाबाद से तकरीबन ५क् किमी दूर पर्यटन स्थल शहर एबटाबाद है। उसका निवास पाकिस्तान की सैन्य अकादमी से महज 800 मीटर की दूरी पर था। पाकिस्तान के सैनिक एवं खुफिया तंत्र का एक हिस्सा आतंकवादियों को पनाह देता है, यह बात कुछ ही दिन पहले अमेरिकी सेनाध्यक्ष माइक मलेन ने पाकिस्तान जाकर सार्वजनिक रूप से कही थी। पश्चिमी मीडिया में आईएसआई के डबल गेम की कहानियां अक्सर छपती रही हैं।
आरोप रहा है कि अलकायदा के खिलाफ कार्रवाई कर पाकिस्तान खुद को पश्चिम के दोस्त के रूप में पेश करता है, मगर तालिबान और हक्कानी गुटों को संरक्षण भी दिए रहता है। तब शायद यह मालूम नहीं था कि अमेरिका ने दस साल, खरबों डॉलर और सैकड़ों सैनिकों की जान जिस ओसामा की तलाश में गंवाई, वह भी पाकिस्तान का ही मेहमान था। अब सच्चाई सामने है। पाकिस्तान के पास मुंह छिपाने को कोई नकाब नहीं है और दुनिया के सामने सवाल है कि वह आतंक की इस पनाहगाह से कैसे निपटे?
पितृसत्ता के पक्ष में
पत्नियों को अपने ससुराल में ज्यादा एडजस्ट करना सीखना चाहिए। खासकर शादी के बाद पहले दो वर्षो में, जो किसी विवाह के कामयाब होने के लिए महत्वपूर्ण अवधि होती है। जबकि दुल्हनों के माता-पिता को सलाह है कि वे अपनी बेटी के घर में दखल न दें। नहीं, ये किसी रूढ़िवादी नेता के विचार नहीं हैं।
ये पंजाब राज्य महिला आयोग के विचार हैं, जो उसने राज्य में तलाक की बढ़ती समस्या के समाधान के लिए सुझाए हैं। समाधान के पीछे की सोच सरल है। महिलाएं अपने बचपन, अपने परिवार और अपने अतीत को भूल जाएं और अपने अस्तित्व का पति के परिवार में संपूर्ण विलय कर दें।
इस सोच में कोई नई बात नहीं है। यही तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था का आधार है। समाज में ज्यादातर लोग आज भी इस सोच से प्रेरित हैं। मगर विडंबना यह है कि इस बार ये सुझाव एक राज्य के महिला आयोग की तरफ से आए हैं, जिसका काम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनके लिए सामाजिक स्थितियों को ज्यादा अनुकूल बनाना माना जाता है।
समता और आधुनिकता की तलाश में हर समाज को कभी न कभी तलाक एवं परिवारों के विखंडन जैसी समस्याओं से गुजरना पड़ा है। ये समस्याएं पैदा न हों, परिवार में शांति बनी रहे, यह वांछित है, मगर इसकी कीमत सिर्फ एक पक्ष को चुकानी पड़े, यह सोच समस्यामूलक है।
संयम बरतना और समझौते करना अपने आप में कोई बुरी बात नहीं है, मगर अपेक्षा यही रहनी चाहिए कि ऐसा पारस्परिक हो। भारतीय संविधान और कानून समता की ऐसी ही भावना पर आधारित हैं। इस भावना के विपरीत जाकर पुरातन सोच की स्थापना की कोशिशें दुखद हैं।
दो तरह का देश, दो तरह की कांग्रेस?
बदलने की किसी भी कोशिश का मतलब यही लगाया जाता है कि पार्टी हित में पुरानी व्यवस्था को ही बनाए रखना जरूरी है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने मंगलवार को नई दिल्ली में संपन्न हुई अपनी एक या आधे दिन की बैठक में जो तय किया वह चौंकानेवाला है। इसलिए नहीं कि उसमें भ्रष्टाचार जैसे अहं मुद्दे पर उसमें कोई चर्चा नहीं हुई या कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रमुखता के साथ निशाने पर लिया गया। बल्कि इसलिए कि बैठक में प्रकट हो सकने वाला कांग्रेस का एक आक्रामक चेहरा लोकसभा के लिए 2014 में होने वाले चुनावों तक पार्टी की गतिविधियों, उसके कार्यकर्ताओं और समूचे देश की राजनीति को प्रभावित करने वाला साबित हो सकता था, पर ऐसा नहीं होने दिया गया। या तो कांग्रेस की स्थापित कमजोरियों के चलते या फिर उन ‘निहित ताकतों’ के कारण जिन्हें किसी भी उजाले वाले परिवर्तन में स्वयं के राजनीतिक भविष्य के लिए अंधकार की आशंकाएं ही डराती रहती हैं।
अपने आपको मैदानी धूप में खपाकर बड़ी जिम्मेदारियों के लिए तैयार करने वाले राहुल गांधी की तरफ देश के अन्य राजनीतिक दलों की नजरें लगी रही होंगी कि इस बार एआईसीसी में कमान उन्हीं के हाथों में दिखाई देगी, पर वैसा नहीं हुआ। तिरुपति और कोलकाता के अनुभवों के बाद से जिस तरह के नारों और जय-जयकारों ने कांग्रेस को जकड़ रखा है, उसमें किसी भी तरह की ढील नहीं पड़ने दी गई। राहुल गांधी, कार्यसमिति के सदस्यों के लिए चुनाव चाहते थे, पर सोनिया गांधी को ऐसा न होने देने के लिए मना लिया गया होगा। अगले तीन वष्रो यानी २क्१४ तक के लिए पार्टी की नीति-निर्धारक इकाई के गठन का निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष के हाथों में सौंप दिया गया। वे चाहेंगी तो निश्चित ही मनोनीत टीम को भी निर्वाचित टीम वाले चेहरों में बदल सकती हैं, अगर ऐसा संभव होने दिया गया तो! राहुल गांधी से कभी कोई कॉलेजी युवा या स्कूली बच्चा सवाल पूछने की हिम्मत जुटा सकता है कि बड़े-बड़े और बुजुर्ग राष्ट्रीय नेता जब सार्वजनिक रूप से उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ने की होड़ में लगे रहते हैं तब उन्हें अंदर से कैसा महसूस होता है?
कांग्रेस के अंदरूनी चुनावों के जरिए देश की जनता की रुचि केवल इतना भर पता करने में हो सकती थी कि किस तरह के संगठनात्मक घोड़े पर सवार होकर राहुल गांधी देश पर अपना राज चलाना चाहते हैं? यानी उनकी खुद की पार्टी पर उनका कितना राज चलता है? सवा सौ साल की उम्र वाली पार्टी क्या इसी तरह आत्ममुग्ध बनी रहकर असली मुद्दों का सामना करने से बचती रहेगी? अगर युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र परिषद (एनएसयूआई) में संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया को अंजाम दिया जा सकता है तो फिर कार्यसमिति के सदस्यों के चुनाव और प्रदेश अध्यक्षों के चयन को लेकर एक-एक पंक्तियों के प्रस्ताव किसलिए?
ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जैसे बड़े विपक्षी दल या अन्य राजनीतिक पार्टियों में प्रजातांत्रिक तरीकों से संगठनात्मक चुनावों की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है और भाई-भतीजावाद अथवा खुशामदखोरों के लिए कोई जगह नहीं रहती। चुनावों का मतलब ही है कि नए चेहरों के लिए कुर्सियां खाली करना, ताजी हवा के थपेड़ों को बंद तंबुओं में घुसने देने के लिए रास्ते बनाना। खतरा वह नहीं है जिसका कि जिक्र ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच बढ़ती हुई दूरी की बात दोहराते हुए राहुल गांधी अकसर कहते रहते हैं और ऐसा उन्होंने एआईसीसी की बैठक में भी किया। राहुल गांधी के सामने शायद बड़ी चुनौती ‘दो तरह की कांग्रेस’ के बीच सोच में बढ़ती दूरियों को पाटने की भी है। एक तो कांग्रेस वह है जिसका कि वे नेतृत्व करना चाहते हैं और दूसरी वह जो वर्तमान में बनी हुई है। : अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक के परिणामों को अनपेक्षित होते हुए भी अनपेक्षित नहीं माना जाना चाहिए।
राजाधर्म या फिर राजधर्म?
विशेष टिप्पणी . हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने देश को भ्रष्टाचार के कितने गहरे बोरवेल में डाल दिया है, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर मच रही सरकार की थू-थू इसका उदाहरण है। मुंबई की आदर्श सोसायटी और कॉमनवेल्थ गेम्स घोटालों से उपजी शर्म ही शायद हमारे सिर नीचे करने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
सत्ता के शीर्ष पर सवार लोगों का दबंगता के साथ इतना बड़ा भ्रष्टाचार कर लेना और फिर उनके खिलाफ बिना न्यायिक एवं जन-दबाव के कार्रवाई का न हो पाना दर्शाता है कि व्यवस्था में कितनी सड़ांध आ गई है। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि संसद में प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत खा लेते हैं, सांसद निधि में घोटाला कर लेते हैं, कबूतरबाजी करके धन कमा लेते हैं और अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करने में कोई संकोच नहीं करते।
ऐसे में आश्चर्य नहीं अगर देश को 1.76 लाख करोड़ रुपए का चूना लगाकार टू-जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस केवल दस हजार आठ सौ करोड़ रुपए में बांट दिए गए, वे भी उन आवेदकों को जिनमें बहुमत अयोग्य कंपनियों का था। सारा भ्रष्टाचार अत्यंत बहादुरी के साथ डंके की चोट पर निपटाया गया क्योंकि दांव पर देश की जनता का धन और सम्मान नहीं बल्कि सरकार का बहुमत टिका हुआ था।
सवाल उठना चाहिए कि अगर प्रधानमंत्री को पता था कि टू-जी स्पेक्ट्रम मामले में इतना बड़ा घोटाला हुआ है तो ए. राजा के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई उन्होंने क्यों नहीं की? अगर उन्हें पता नहीं था तो फिर सरकार को सत्ता में बने रहने का क्या अधिकार है? प्रधानमंत्री जनता के सवालों को लेकर अपनी मौन-मुद्रा बनाए रख सकते हैं पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा की जा रही पूछताछ के मामले में ऐसा नहीं कर पाएंगे।
देश की जनता मांग करना चाहेगी कि टू-जी स्पेक्ट्रम के तहत आवंटित किए गए सभी लाइसेंस रद्द किए जाएं और उनकी उसी तरह से नीलामी हो जैसी कि थ्री-जी के मामले में हुई है। ऐसी ही किसी पारदर्शी प्रक्रिया के जरिए पता चल पाएगा कि सरकार को वास्तव में कितनी धनराशि प्राप्त होनी थी और कितने राजस्व की क्षति हुई है। पर ऐसा कर पाना सरकार के लिए आसान काम नहीं होगा। सरकार के निर्णय को अदालत में चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि ऐसा होने से उन बिचौलियों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है जिन्होंने लाइसेंस प्राप्त करने के लिए भारी धनराशि का लेन-देन किया है। साथ ही जांच एजेंसियों की साख को और धक्का पहुंच सकता है।
और इस सबसे भी अधिक यह कि ऐसा करके सरकार स्वयं ही अपने एक महत्वपूर्ण मंत्रालय की संपूर्ण व्यवस्था को भ्रष्ट करार दे देगी। राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित अपनी जगह कायम है। महत्वपूर्ण यह भी कि प्रधानमंत्री जिस नौ प्रतिशत की वार्षिक विकास दर को हासिल करने की बात कर रहे हैं उसमें अस्थायी तौर पर रुकावट आ सकती है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बाधित हो सकता है। पर प्रधानमंत्री अगर साहस दिखाएं तो टू-जी स्पेक्ट्रम सहित हाल में उजागर हुए तमाम घोटालों को हथियार बनाकर व्यवस्था से भ्रष्टाचार की सफाई का काम हाथ में ले सकते हैं।
जनता और देशी-विदेशी निवेशकों को संदेश दे सकते हैं कि सरकारी व्यवस्था में बिना रिश्वत के भी काम हो सकते हैं, गलत चीजों को रोका जा सकता है। पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी ईमानदार छवि के जरिए प्रशंसा बटोरने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ऐसा कर पाएंगे उसमें शक इसलिए है कि कड़े राजनीतिक फैसले लेने की इच्छा-शक्ति का उन्होंने अभी तक प्रदर्शन नहीं किया है।
और फिर भ्रष्टाचार से निपटने का मामला तो उस पूरी व्यवस्था को एक खुली जेल में तब्दील करने का है, जिसके दम पर भारत को एक महाशक्ति बनने का प्रधानमंत्री साहस बनाए हुए हैं। चूंकि सरकार के असली राजा प्रधानमंत्री ही हैं, उन्हें निश्चित ही पता रहा होगा कि ए.राजा ने क्या कुछ किया है। इसके बावजूद अगर उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की तो उनकी कुछ मजबूरी रही होगी जो उजागर होनी चाहिए। जिस पैमाने का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है वह आजाद भारत का शायद सबसे बड़ा कलंक है। देश उसे ऐसे ही स्वीकार नहीं कर लेगा?
बेवजह बचाव की मुद्रा में है कांग्रेस!
राष्ट्रीय संकट और राग दरबारी
जिस तरह की अस्थिरता का माहौल इस समय देश में व्याप्त है, पहले कभी नहीं रहा। देश एक अहिंसक अराजकता के दौर में प्रवेश करने की तैयारी करता दीख रहा है। संसद का समूचा सत्र विपक्ष की इस मांग और सत्तारूढ़ गठबंधन द्वारा उसे किसी भी कीमत पर नहीं स्वीकार करने की भेंट चढ़ चुका है कि दूरसंचार घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए। दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद पर इस हद तक अड़े हुए हैं कि आगामी बजट सत्र का क्या हश्र होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। विपक्ष निश्चित ही इसका ठीकरा सत्तारूढ़ गठबंधन पर और यूपीए उसे भाजपा, उसके सहयोगी दलों तथा वामपंथियों के सिर पर फोड़ेगा।
ऐसा तो पहले भी हुआ है कि देश में गहरा राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया हो या राष्ट्र को किसी आर्थिक अस्थिरता का सामना करना पड़ा हो। 1974 के बिहार आंदोलन और फिर 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसले के बाद उत्पन्न हुआ राजनीतिक संकट और उसके कोई डेढ़ दशक बाद चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में विदेशी मुद्रा की स्थिति को लेकर उत्पन्न हुई आर्थिक परिस्थितियां उदाहरण के तौर पर गिनाए जा सकते हैं। दोनों ही तरह की परिस्थितियों का देश ने सामना भी किया और सफलतापूर्वक उससे बाहर भी आया। उसका बुनियादी कारण यही रहा कि तब आम आदमी देश की चिंताओं को अपनी चिंता मानता था।
वर्तमान की इस खतरनाक स्थिति की ओर किसी का ध्यान नहीं है कि संसद के अस्तित्व में होने या नहीं होने के प्रति जनता को संवेदनाशून्य बनाया जा रहा है। जनता को कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा है कि देश की सर्वोच्च संवैधानिक व प्रतिनिधि संस्था इस तरह से ठप पड़ी है कि जैसे उसकी जरूरत ही खत्म हो गई है या कि उसके बिना भी काम चल सकता है। कल को विधानसभाओं और स्थानीय निकायों को लेकर भी ऐसी ही स्थितियां बन सकती हैं। लड़ाई इस तरह की छिड़ी है कि संवैधानिक संस्थाओं की शामत बन आई है, उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, उनसे संबद्ध लोगों के चाल-चलन और प्रतिबद्धताओं को संदेह के घेरे में लाया जा रहा है और किसी भी स्तर पर विरोध या चिंता के स्वर प्रकट नहीं हो रहे हैं। सलाहकारों और दरबारियों की जमात निर्वस्त्र राजा के भी शानदार परिधानोंे से सुसज्जित होने का दावा करने में जुटी है और प्रजा को महंगाई और भ्रष्टाचार की ठंड में ठिठुरने के लिए सड़कों पर ठेला जा रहा है।
संवैधानिक संस्थाओं की वैधता को सार्वजनिक रूप से चुनौती देने और उनके निर्णयों को कठघरों में खड़ा कर उन्हें शर्मिदा करने के सिलसिले को रोका जाना इसलिए जरूरी है कि बारह से बीस रुपए के बीच की आमदनी पर बसर करने वाली देश की कोई चालीस करोड़ जनता के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचने के वैधानिक रास्ते ये ही हैं। बिनायक सेन मामले में रायपुर (छत्तीसगढ़) की जिला अदालत द्वारा दिए गए फैसले को लेकर जिस तरह की नाराजगी और आलोचना का प्रदर्शन किया जा रहा है, वह लगभग उसी तरह का है जैसा कि शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के बाद संबंधित न्यायाधीशों के खिलाफ आक्रोश सड़कों पर व्यक्त हुआ था। ‘धार्मिक कट्टरवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष कट्टरवाद’ में शायद कोई फर्क नहीं रह गया है। तथाकथित ‘सेकुलरिज्म’ भी एक तरह के ‘कट्टरवाद’ में तब्दील होकर संवैधानिक संस्थाओं को वैसे ही जलील और अपमानित करने में जुट जाना चाहता है जैसे धार्मिक कट्टरवादी करते हैं। बोफोर्स तोपों की खरीद में दी गई कथित दलाली को लेकर आयकर अपीलीय अधिकरण की व्यवस्था पर जिस आशय की शंकाएं राजनीतिक स्तरों पर व्यक्त की गईं और उसके निर्णय को संदेह के घेरे में लाया गया है, व्यवस्था के खंभों को कमजोर करने की दिशा में यह एक और कदम है।
2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट को लेकर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के नेतृत्व में कांग्रेस ने जो आक्रामक रवैया अपनाया है वह और भी हैरान करने वाला है। समझ से बाहर है कि कौन किसे बचाना चाहता है और असली अपराधी कौन है! नीरा राडिया का प्रकरण अब कहां है, कौन बताएगा? बातचीत के पांच हजार आठ सौ टेप्स में से केवल कुछ चुने हुए ही क्यों जाहिर हुए? बाकी का क्या हुआ? किससे पूछा जाए?
कैग की ‘77 पृष्ठों’ की रिपोर्ट संसद में 16 नवंबर को संसद के पटल पर रखी गई थी। (सरकार को तो रिपोर्ट 10 नवंबर को ही सौंप दी गई थी)। बताने की जरूरत नहीं कि रिपोर्ट में स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए के नुकसान की बात कही गई थी। पूरे घोटाले में ए राजा की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए थे। यही वह समय था, जब देश राडिया टेप्स की गिरफ्त में था और नीरा राडिया, ए राजा तथा मीडिया से संबद्ध बड़े-बड़े नामों की भूमिका को लेकर बहसें चल रही थीं और लानतें भेजी जा रही थीं। रिपोर्ट पेश होने के लगभग दो महीने बाद दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने कैग के उन तमाम निष्कर्षो को निराधार, गलतियों से भरा एवं महज अनुमानों के आधार पर गढ़ा हुआ बता दिया, जिनका जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत तौर पर संसद की लोकलेखा समिति के समक्ष प्रस्तुत होने का प्रस्ताव किया था। श्री सिब्बल का दावा है कि सरकारी खजाने को वास्तविकता में कोई घाटा नहीं हुआ। एक ऐसी संवैधानिक संस्था जिसकी रिपोर्ट्स की वैधता और विश्वसनीयता को लेकर अतीत में कभी संदेह नहीं व्यक्त किए गए, उसे एक झटके में केवल इसलिए दांव पर लगा दिया गया कि इस समय प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत निष्ठा और सरकार का अस्तित्व दांव पर लगा है।
पूछा जाना चाहिए कि अगर कोई घोटाला हुआ ही नहीं है तो क्यों ए राजा को त्यागपत्र देना पड़ा, क्यों उनके ठिकानों पर छापे पड़ने चाहिए थे और क्यों प्रधानमंत्री को लोकलेखा समिति के समक्ष पेश होने का प्रस्ताव करना चाहिए? और अगर कैग की रिपोर्ट का कोई मतलब ही नहीं है तो फिर पूरे मामले की जांच क्यों लोक लेखा समिति को करनी चाहिए और क्योंकर संयुक्त संसदीय समिति गठित की जानी चाहिए?
सरकार इस समय बदहवास नजर आती है क्योंकि उसे एक साथ कई मोर्चो पर न सिर्फ लड़ाई लड़नी पड़ रही है, बल्कि उसके सैनिक भी विभाजित और अलग-अलग उद्देश्यों के लिए भटकते नजर आ रहे हैं। जनता भौंचक्की है कि उसे क्या करना चाहिए। संवैधानिक संस्थाओं की साख को कमजोर करने वाले कार्यक्रमों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष व सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के परिजनों से संबंधित आरोपों और मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस से जुड़े विवादों पर अलग से चर्चा की जा सकती है। वर्ष 2010 की विशेषताओं के बारे में कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर साल सबसे ज्यादा निराशाजनक ढंग से खत्म हुआ ही है पर 2011 की शुरुआत भी कोई आशाजनक तरीके से नहीं हुई है।
न्यायिक सक्रियता के निहितार्थ
केशवानंद भारती केस में न्यायपालिका की व्यवस्था के बाद सालों साल इस पर बहस भी चली। संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकार-क्षेत्र को लेकर कई बार टकराव की स्थितियां भी बनीं। पर आज के हालात देखकर लगता है कि न तो सरकार ही और न ही जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही इतनी दयनीय स्थिति में पहले कभी देखे गए। ऐसे हालात तभी बनते हैं जब सरकार का अपनी ही संस्थाओं पर नियंत्रण खत्म होता जाता है या फिर उसका अपनी जनता पर से भरोसा उठ जाता है। सत्ता में काबिज लोगों को ऐसा आत्मविश्वास होने लगता है कि सबकुछ ठीकठाक चल रहा है और स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में है। न तो कोई अव्यवस्था है और न ही कोई भ्रष्टाचार, विपक्षी दलों द्वारा जनता को जान-बूझकर गुमराह किया जा रहा है। दूरसंचार घोटाले पर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट को लेकर कपिल सिब्बल जैसे जिम्मेदार केंद्रीय मंत्री द्वारा किया गया दावा और उस पर न्यायपालिका सहित देशभर में हुई प्रतिक्रिया इसका केवल एक उदाहरण है। विभिन्न मुद्दों पर सरकार द्वारा व्यक्त प्रतिक्रिया ठीक उसी प्रकार से है जैसे भयाक्रांत सेनाएं मैदान छोड़ने से पहले सारे महत्वपूर्ण ठिकानों को ध्वस्त करने लगती हैं।
आश्चर्यजनक नहीं कि एक अंग्रेजी समाचार पत्र द्वारा वर्ष 2011 के लिए देश के सर्वशक्तिमान सौ लोगों की जो सूची प्रकाशित की गई है उसमें पहले स्थान पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसएच कापड़िया को रखा गया है। दूसरा स्थान कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को और तीसरा एक सौ बीस करोड़ की आबादी वाले देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को प्रदान किया गया है। इस क्रम पर अचंभा भी व्यक्त किया जा सकता है और जिज्ञासा भी प्रकट की जा सकती है। बताया गया है कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में श्री कापड़िया आज सुप्रीम कोर्ट की ताकत का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक ऐसे वक्त जब राजनीति का निर्धारण न्यायपालिका के फैसलों/टिप्पणियों से हो रहा है, नंबर वन न्यायाधीश और उनकी कोर्ट देश का सबसे महत्वपूर्ण पंच बन गई है। अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित फैसले को लेकर जब राजनीति की सांसें ऊपर-नीचे हो रही थीं, बहसें सुनने के बाद उन्होंने यह निर्णय देने में एक मिनट से कम का समय लगाया कि हिंसा फैलने की आशंकाओं को बहाना नहीं बनने दिया जाना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय को अपना फैसला सुनाना चाहिए।
चिंता का मुद्दा यहीं तक सीमित नहीं है कि राष्ट्रमंडल खेलों में सरकार की नाक के ठीक नीचे हुए भ्रष्टाचार से लेकर विदेशों में जमा काले धन की वापसी के सवाल तक पिछले महीनों के दौरान जितने भी विषय उजागर हुए उन सबमें सच्चाई सामने आने की संभावनाएं न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बाद ही प्रकट हुईं और ऐसा कोई आश्वासन नहीं है कि जो सिलसिला चल रहा है वह कहीं पहुंचकर रुक जाएगा।
क्या ऐसी आशंका को पूर्णत: निरस्त किया जा सकता है कि लगातार दबाव में घिरती हुई कार्यपालिका किसी मुकाम पर पहुंचकर न्यायपालिका के फैसलों को चुनौती देने, उन्हें बदल देने या उन पर अमल को टालने की गलियां तलाश करने लगे। या फिर न्यायपालिका पर राजनीतिक आरोप लगाए जाने लगें कि वह शासन के कामकाज में हस्तक्षेप करते हुए अग्रसक्रिय (प्रोएक्टिव) होने का प्रयास कर रही है, टकराव की स्थिति इससे भी आगे जा सकती है। ऐसा अतीत में हो चुका है।
अक्टूबर 2009 में जब इटली की 15 सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने व्यवस्था दी कि वहां की संसद द्वारा पूर्व में पारित कानून, जिससे प्रधानमंत्री को उनके खिलाफ चलाए जाने वाले मुकदमों के प्रति सुरक्षा (इम्यूनिटी) प्राप्त होती है असंवैधानिक है तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सिल्वियो बलरूस्कोनी ने निर्णय को यह कहते हुए चुनौती दे दी कि संवैधानिक पीठ पर वामपंथी जजों का आधिपत्य है। उन्होंने कहा कि ‘कुछ नहीं होगा, हम ऐसे ही चलेंगे।’ उन्होंने कोर्ट को ऐसी राजनीतिक संस्था निरूपित किया, जिसकी पीठ पर 11 वामपंथी जज बने हुए हैं।
न्यायपालिका की संवैधानिक व्यवस्थाओं को तानाशाही तरीकों से चुनौती देने की स्थितियां और कार्यपालिका के कमजोर दिखाई देते हुए हरेक फैसले के लिए न्यायपालिका के सामने लगातार पेश होते रहने की अवस्था के बीच ज्यादा फर्क नहीं है। एक स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। चूंकि इस समय देश का पूरा ध्यान सरकार व न्यायपालिका के बीच चल रहे संवाद व अदालती व्यवस्थाओं पर केंद्रित है, विपक्ष की इस भूमिका को लेकर कोई सवाल नहीं खड़े कर रहा है कि कार्यपालिका को कमजोर करने में भागीदारी का ठीकरा उसके सिर पर भी फूटना चाहिए। जो असंगठित और कमजोर विपक्ष न्यायपालिका की ताकत को ही अपनी ताकत समझकर आज सरकार के सामने इतना इतरा रहा है वह स्वयं भी कभी आगे चलकर इसी तरह के टकरावों की स्थितियों का शिकार हो सकता है। यह मान लेना काफी दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि देश का राजनीतिक विपक्ष न्यायपालिका के फैसलों और टिप्पणियों में ही अपने लिए शिलाजीत की तलाश कर रहा है।
खेल खतम, पैसा हजम
खेलों के सफलतापूर्वक आयोजन को लेकर श्रेय की दावेदारी का संघर्ष प्रारंभ हो चुका है, जो आगे कई दिनों तक चलेगा। आरोपों-प्रत्यारोपों के गंदे अंतर्वस्त्रों की सार्वजनिक रूप से धुलाई भी होगी ही और उन्हें टांगने के लिए राजनीतिक खूंटियों की तलाश भी की जाएगी।
सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाएगा कि पैंतीस हजार करोड़ रुपए या उससे भी कहीं कई गुना ज्यादा की राशि का जो प्रदर्शन नई दिल्ली में हुआ है, उसकी तहों में छुपे भ्रष्टाचार की खाल उधेड़ने का काम कोई करेगा या नहीं? या फिर सब कुछ जुबानी जमा-खर्च से ही बराबर हो जाएगा?
ऊपर से चलने वाला एक रुपया देश के गांवों में नीचे पहुंचते-पहुंचते कितने पैसे का रह जाता है उसे लेकर स्व. राजीव गांधी ने सबसे पहले कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अपनी चिंता जताई थी। दो दशकों के बाद राहुल गांधी भी उसी की चर्चा कर रहे हैं।
स्थितियों के फर्क की बातचीत करें तो राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर हुआ सारा भ्रष्टाचार ठीक सत्ता की नाक के नीचे नई दिल्ली में हुआ है। कोई गारंटी नहीं कि इस आदमकद भ्रष्टाचार को लेकर सत्ता के गलियारों में कोई जूं भी रेंगने वाली है।
बहुत मुमकिन है देश की इज्जत के नाम पर सब कुछ जायज करार दिया जाए। पदकों की चमक-दमक के पीछे हर तरह के अपराध और भ्रष्टाचार की कालिख छुपा दी जाएगी। इज्जत के नाम पर जब देश में निरपराध लोगों की हत्याएं भी बर्दाश्त कर ली जाती हों, पैसों का भ्रष्टाचार तो मामूली बात है। सफलताओं के जश्न के दौरान इस तरह की चर्चाएं करना भी एक अपशगुन माना जाता है।
राष्ट्रमंडल खेलों के समारोह स्थल जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के समीप बनने वाले फुट ओवरब्रिज के गिर जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था : ‘इस देश में काम पूरा हुए बिना भुगतान कर दिया जाता है। नया ब्रिज ताश के पत्तों की तरह ढह गया।
(खेलों के आयोजन में) सत्तर हजार करोड़ रुपए शामिल हैं। देश में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। हम आंखें मूंद कर नहीं रह सकते।’ पर इस समय बहस में भ्रष्टाचार नहीं, खेलों की सफलता को लेकर दावेदारियां हैं। दिल्ली के उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना ने प्रधानमंत्री से शिकायत की है कि खेल गांव के सफाई इंतजामों को लेकर सारा श्रेय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ले रही हैं, जो कि गलत है।
श्री खन्ना ने ही इसके पहले कहा था कि खेलगांव में साफ-सफाई व रखरखाव की जिम्मेवारी आयोजन समिति की है। कोई भी इस समय यह चर्चा नहीं करना चाहता कि करोड़ों की लागत से बनने वाले फुट ओवरब्रिज के गिर जाने के बाद सेना के जवानों ने किस तरह से केवल तीन दिनों में आधी से कम लागत में उसे तैयार कर पांचवें दिन आयोजन समिति को सौंप दिया था। राष्ट्रमंडल खेल अगर किसी एक कारण से भी विफल हो जाते तो उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए भी शायद टेंडर जारी करना पड़ते।
इस मुद्दे पर तो शायद अब कोई बहस भी नहीं छेड़ना चाहेगा कि पैंतीस या सत्तर हजार करोड़ रुपए देश के कितने गांवों की तकदीर बदल सकते थे? कितने स्कूल या कितनी सड़कें बना सकते थे? कितनी महिलाओं को कितनी दूरी से पीने का पानी ढोकर लाने की जिल्लत से निजात दिला सकते थे? या कितने किसानों को आत्महत्या करने से रोक सकते थे?
देश को कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए अगर आने वाले वर्षो में हम सुरेश कलमाडी और ललित मोदी के कई क्लोन तैयार करने में सफल हो जाएं और ये ही लोग सफलता के प्रतीक पुरुष बन जाएं। ओलिंपिक खेलों की मेजबानी करने के हौसले अब वैसे ही बुलंद हो गए हैं।
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को लेकर चलने वाली तैयारियों के दौरान जिस तरह की शर्म का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को सामना करना पड़ा और प्रधानमंत्री को जिस तरह व्यक्तिगत रूप से अपनी निजी क्षमता को दांव पर लगाकर हस्तक्षेप करना पड़ा,
अगर उसे भी भ्रष्टाचार की तरह ही हजम नहीं करना चाहें तो सीखने के लिए ऐसा बहुत कुछ हाथ लगा है, जो देश में खेलों और खिलाड़ियों का भविष्य संवार सकता है। पर हम जानते हैं ऐसा होगा नहीं। खेल संगठनों पर कब्जा जमाए हुए बूढ़े राजनीतिज्ञ और भ्रष्ट नौकरशाह ऐसा संभव होने नहीं देंगे।
देश के खेल संगठन और उनके मार्फत मिलने वाला सुख राजभवनों के आनंद से कम नहीं है। राजभवनों में स्थापना के लिए जिस तरह के व्यक्तित्वों की आमतौर पर तलाश की जाती है, वे कोई अप्रतिम नहीं होते। राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के दौरान मचे घमासान को हम अपने राष्ट्रीय मिजाज से अलग करके नहीं देख सकते।
आखिरी वक्त में/ तक सारी तैयारियों में जुटे रहना और फिर उसके लिए हर तरह की बाधा दौड़ ‘किसी भी कीमत पर’ जीतने का जज्बा ही हमारा सबसे बड़ा आपदा प्रबंधन है और हम उस पर व्यक्तिगत से लगाकर राष्ट्रीय स्तर तक गर्व करने में संकोच नहीं करते।
देश में कुछ सुगबुगाहट जरूर है कि चीजें बदलने का नाम लेने लगी हैं। बताया जा रहा है कि आने वाले वर्षो में राजनीति में नेतृत्व का हस्तांतरण युवाओं के हक में होने जा रहा है। कुछ नए और ईमानदार चेहरे देश की नई इबारत लिखने जा रहे हैं। जैसा कि खेलों के दौरान देखा गया।
छुपे हुए और गुमनाम चेहरों ने अंधेरों से निकलकर पदकों का आकाश चूम लिया और अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों को राष्ट्र के सामूहिक गौरव में तब्दील कर दिया। अगर ऐसा होता है तो उम्मीद की जा सकती है कि खेलों और उनकी तैयारियों की तस्वीर भी बदलेगी।
पर तब तक के लिए हम इस पदक तालिका के साथ तरक्की की ओर आगे बढ़ते रह सकते हैं कि राष्ट्रमंडल के सभी देशों के बीच औसत से कम वजन के बच्चों की संख्या के मामले में भारत सबसे ऊपर है।
बच्चों के अधिकारों से जुड़ी एक स्वयंसेवी संस्था की रिपोर्ट में किया गया खुलासा चौंकाने वाला हो सकता है कि भारत में 43 प्रतिशत बच्चे औसत से कम वजन के हैं। खेलों की तैयारियों से जुड़े असली मानकों की ओर तो वास्तव में किसी का ध्यान ही नहीं है। जिस तरफ ध्यान है वह यह कि : खेल खतम, पैसा हजम! - लेखक भास्कर के समूह संपादक हैं।
देशकाल
ऐसा लगता था सभी लोग सीधे स्नानागारों से निकलकर रेलवे स्टेशन या हवाई अड्डों पर पहुंच गए हैं। कहीं कोई तनाव नजर नहीं आता था। किसी को भी कहीं पहुंचने की कोई जल्दी नहीं होती थी। स्टेशन भी परिचित ठिकानों की तरह ही नजर आते थे।
और फिर हवाई अड्डों पर तो तब कोई खास भीड़ भी नहीं होती थी। इसी सब के चलते बहुतेरे लोगों ने आखिरी वक्त पर ट्रेनें और हवाई जहाज पकड़ने की आदतों के साथ रिश्ते कायम कर लिए थे।
पर पता ही नहीं चल पाया और पलकें झपकते ही सब कुछ अचानक बदलने लगा। न तो रेलवे स्टेशन और न ही हवाई अड्डे पहले जैसे रहे और न ही यात्रा करने वाले चेहरे। किसी समय चहलकदमी करते ट्रेनों पर सवार होने वाले या हर एक स्टेशन पर उतरकर डिब्बों में अपने परिचितों को ढूंढ़ने वाले लोगों की जगह थकी-मांदी और बेसब्र भीड़ ने ले ली है।
एक-दूसरे को धक्के मारते हुए कैसे आगे बढ़ा जाए, हर तरह की यात्रा का मूल मंत्र हो गया है। हर एक ट्रेन अपनी सुरक्षा के प्रति आशंकित विस्थापितों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ढोकर ले जाती हुई मशीन जैसी नजर आने लगी है।
हर एक यात्री रात के सफर में बार-बार चौंककर उठने लगा है कि या तो उसका सामान चोरी हो चुका है या फिर उसका स्टेशन पीछे निकल गया है और वह उतर नहीं पाया। अब पूरे डिब्बे में कोई परिचित या तो मिलता ही नहीं। मिलता भी है तो या तो कुछ याद करता या सीट के लिए परेशान।
हवाई अड्डे भी थके-मांदे और परेशान लोगों की भीड़ के ‘अड्डों’ में तब्दील होते जा रहे हैं। परिचित चेहरों और मुस्कराहटों की जगह या तो सस्ती दरों वाली हवाई सेवाओं द्वारा तैयार किए गए नए उपभोक्ता वर्ग ने ले ली है या फिर एक हाथ में मोबाइल और दूसरे में लैपटॉप संभाले टाई छाप कॉपरेरेट कल्चर ने।
पहले लोग कम होते थे और खिलखिलाहटें और आवाजें ज्यादा, पर अब केवल भीड़ होती है जो बसंत के मौसम में भी सन्नाटा ओढ़े रहती है। बोर्डिग पास लेनेके लिए लगने वाली कतारें देखते ही देखते सुरक्षा जांच के तनाव और फिर ‘विमान में सबसे पहले कैसे चढ़कर अपना सामान जमा लें’ की आपाधापी में परिवर्तित हो जाती हैं।
ट्रेनों में भी मोबाइल और लैपटॉप के चार्ज करने के पाइंट्स की तलाश की जाती है और हवाई अड्डों पर भी। एक-दूसरे को आत्मीयता और अपनेपन से चार्ज करने के आनंदवन तनावों और अवसादों के रेगिस्तानों में बदल गए हैं। एक वक्त था जब बीमारों के इलाज के लिए महानगरों में ले जाने के लिए हवाई जहाजों के इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी, अब ऐसा लगता है कि बीमारों से भरे जहाजों को इलाज के लिए कहीं ले जाया जा रहा है।
तने हुए चेहरों के छोटे-छोटे कई गांव जैसे आकाश में एक साथ प्रतियोगिता करते हुए उड़ रहे हों। एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतियोगिता। ऐसा कुछ प्राप्त करने की प्रतियोगिता जिसे व्यक्त नहीं किया जा सके। पहले रेलगाड़ियों के विलंब से आने-जाने को लेकर भी ज्यादा खीझ नहीं होती थी, अब हवाई जहाजों के विलंब से उड़ने या किसी उड़ान के रद्द हो जाने की पीड़ा भी बर्दाश्त से बाहर हो चली है।
इंसानी संवेदनाएं रेलगाड़ियों के अप-डाउन नंबरों और उड़ानों की संख्या में बदल गई हैं। अब इस तरह की कोई सूचना नहीं मिलती कि कितने लोग मुस्कराते हुए अपने घरों को सकुशल पहुंच गए। अब बताया यह जाता है कि सितंबर में छप्पन हजार से अधिक यात्रियों को उड़ानों के निरस्त हो जाने या उड़ानों में विलंब से परेशानी हुई। प्रगति की नई परिभाषा ने हर एक चीज को आंकड़ों में बदल दिया है।
शहरों की कुल आबादी के मुकाबले मोबाइल सेटों की संख्या ज्यादा हो रही है पर लोगों ने सीधे-मुंह एक-दूसरे से बात करना या तो बंद कर दिया है या कम कर दिया है। एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि इंफॉर्मेशन टेक्नालॉजी के क्षेत्र में भारत में कार्यरत दस में से नौ लोग अपनी व्यावसायिक उत्पादकता के लिए ऑफिस जाना जरूरी नहीं समझते।
जिस कॉपरेरेट इंफार्मेशन की उन्हें अपने काम के सिलसिले में जरूरत पड़ती है उसे वे आफिसों के बाहर भी प्राप्त कर सकते हैं। यानी कि देश आधुनिक टेक्नालॉजी के एक ऐसे संसार में प्रवेश कर रहा है जो न सिर्फ ‘वायरलेस’ है, ‘कॉन्टेक्टलेस’ भी है।
मीडिया में काम करने वाले लोगों को एक ही वस्तु के दो अलग-अलग समाजों में विपनी प्रस्तुतीकरण के बारे में ज्ञान दिया जाता है। उन्हें समझाया जाता है कि पित्जा की डिलीवरी देने वाला बॉय जब यूरोप के किसी मकान में दरवाजे पर दस्तक देता है तो अंदर कामचलाऊ रोशनी के बीच जमीन पर पैर लंबे किए और लैपटॉप पर काम करता हुआ एक अकेला इंसान होता है।
उसी पित्जा कंपनी के डिलीवरी बॉय को भारतीय विज्ञापन में एक ऐसे मकान पर दस्तक देते हुए बताया जाता है जहां पूरा परिवार एक साथ बैठा टीवी देख रहा है या गप्पे हांक रहा है। पर यह दृश्य भारत में भी शायद लंबे समय तक नहीं चले।
तरक्की की समूची बहस ही जब ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ पर केंद्रित होती जा रही हो, असली फैमिली तो धीरे-धीरे आदिवासी स्वरूप को ही प्राप्त करने वाली है। भारतीय समाज जो अकेलेपन से हमेशा घबराता और डरता रहा है अब एक ऐसी व्यवस्था को आत्मसात कर रहा है जो अपार भीड़ के बीच भी उसे पूरी तरह से शून्यता का बोध कराने वाली है। और यह सब किसी यौगिक क्रिया या तंत्र-साधना के तहत नहीं हो रहा है। यह जान-बूझकर किए जाने वाला सामूहिक प्रयास है।
जैसे-जैसे भीड़ बढ़ेगी, रेलवे स्टेशनों पर मल्टी-लेयर प्लेटफार्म्स बनेंगे, रेलगाड़ियों की संख्या बढ़ेगी, हवाई अड्डे लगातार आधुनिक और विस्तारित होते जाएंगे। एक-एक शहर में कई-कई हवाई अड्डे होंगे। और तब विमानों की भीड़ एक-दूसरे के आगे-पीछे वैसे ही दौड़ती नजर आएंगी जैसे अभी आकाश में चिड़ियाओं के झुंड दिखाई देते हैं।
तब चिड़ियाएं उड़ने के लिए कहां जाएंगी? वे तो इंसानों की तरह घोसलों में कैद रहने की आदत नहीं डाल पाएंगी। मुमकिन है प्रगति के जिस सुख की आधुनिक भारत को तलाश है, उसके लिए यह कोई बड़ी कीमत न भी हो। - लेखक दैनिक भास्कर के समूह संपादक हैं।
धन और लक्ष्मी
मैं हाल ही की एक घटना से अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। पिछले हफ्ते मैं प्रख्यात अमेरिकी निर्देशक ओलिवर स्टोन द्वारा संचालित एक कार्यक्रम में मौजूद था। यह कार्यक्रम मुंबई फिल्म फेस्टिवल में हो रहा था। ओलिवर हॉलीवुड सिनेमा की जीवित किंवदंती हैं और उन्होंने तकरीबन चालीस साल लंबे फिल्मी कॅरियर में विभिन्न विषयों पर फिल्में बनाई हैं।
उनकी एक चर्चित फिल्म है ‘वॉल स्ट्रीट’ (1984), जिसका सीक्वेल हाल ही में रिलीज हुआ है। फिल्म में माइकल डगलस ने गोर्डन गेक्को की भूमिका निभाई थी। एक चालाक, अनैतिक, लेकिन आकर्षक फाइनेंसर। गोर्डन गेक्को अमेरिकी सिने इतिहास के सबसे यादगार चरित्रों में से एक है। फिल्म में गेक्को का यह संवाद बहुत लोकप्रिय हुआ था : ‘ग्रीड इज गुड’ (लालच में बुराई नहीं।)
यह मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं ओलिवर से मिला। मैंने उनसे पूछा गोर्डन गेक्को इतना लोकप्रिय क्यों है? ओलिवर ने इसका बहुत सीधा सा जवाब दिया। उन्होंने कहा : ‘गेक्को इसलिए लोकप्रिय है, क्योंकि वह कामयाब और रईस है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसके तौर-तरीके अनैतिक हैं, या वह मतलबी और लालची है या बुरा इंसान है। ८क् के दशक में अमेरिकियों का ध्यान भौतिक संपदा पर इतना केंद्रित हो गया था कि उन्हें ‘ग्रीड इज गुड’ जैसे ही किसी जुमले की जरूरत थी, जो उनकी लालसा को न्यायोचित ठहरा सके।’
इस दीपावली पर, जब हम लक्ष्मी की पूजा करेंगे, तब हमें यह आत्ममंथन भी करना चाहिए कि कहीं हम भी तो धीरे-धीरे ऐसे ही नहीं बनते जा रहे हैं? नहीं तो हमारे राजनेता उन्हीं लोगों को क्यों लूटते, जो उन्हें वोट देकर जिताते हैं? क्यों वे अपनी जेबों में सैकड़ों करोड़ रुपए ठूंस लेते हैं,
जबकि संभव है वे इतना पैसा अपने जीवनकाल में खर्च भी न कर पाएं? आखिर क्यों सेना का कोई जनरल उस फ्लैट को हजम कर जाना चाहता है, जो किसी सैनिक की विधवा के लिए था? आखिर क्यों हमारे देश के पढ़े-लिखे, चतुरसुजान, इज्जतदार नौकरशाह भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं?जवाब बहुत सरल है : पैसा। या दूसरे शब्दों में हमारे समाज में पैसे का बढ़ता प्रभाव।
मुझे गलत न समझें। पैसा बहुत जरूरी है। गरीबी एक तरह का रोग है और आज के वक्त में सम्मान से जीवन-यापन करने के लिए एक निश्चित मात्रा में भौतिक संपदा का होना जरूरी है। लेकिन, अक्सर ऐसा पाया जाता है कि लोगों को केवल इन्हीं चीजों के लिए पैसों की जरूरत नहीं होती। हमारे राजनेता और सरकारी अफसर कुछ अन्य कारणों से भी पैसा चुराने के लिए प्रेरित होते हैं। मैं उनमें से कुछ के बारे में बात करना चाहूंगा।
पहला कारण यह कि पैसे से सामाजिक हैसियत हासिल होती है। आपका घर जितना बड़ा होगा, आपकी पार्टियां जितनी शानदार होंगी, आपकी सामाजिक हैसियत में उतना ही इजाफा होगा। ज्यादा से ज्यादा भौतिक चीजों के बाजार में आने से यह धारणा और मजबूत हुई है।
हमारे घर में जो अखबार आते हैं, वे महंगी चीजों के विज्ञापनों से भरे होते हैं, जैसे कि उन्हें खरीदना ही जीवन का सबसे अहम मकसद हो। हमें सबसे अमीर लोगों और सबसे महंगे घरों की फेहरिस्त पढ़ने में मजा आता है। टीवी में महंगी शादियों पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जाते हैं।
आज यह स्थिति है कि महंगे गहने और जूतियां पहनने वाली और डिजाइनर बैग रखने वाली किसी महिला की हैसियत सूती कपड़े की साड़ी पहनने वाली किसी स्कूल शिक्षिका की तुलना में ज्यादा समझी जाएगा। मोटी तनख्वाह पाने वाले लोग ज्यादा सुर्खियों में रहते हैं, बनिस्बत उन साहसी पत्रकारों के, जिन्होंने किसी घोटाले का भंडाफोड़ किया है या उन परोपकारी चिकित्सकों के, जो गरीबों का इलाज करते हैं। जाहिर है ऐसे सामाजिक ढांचे में पैसों के प्रति आकर्षण तो होगा ही।
दूसरा कारण यह कि पैसों से सामाजिक सुरक्षा का अहसास होता है। यह धन का वास्तविक लाभ जरूर है, लेकिन राजनेताओं में एक अजीब तरह की असुरक्षा की भावना होती है। यह उनके पेशे की प्रकृति है। किसी भी राजनेता को पता नहीं होता कि वह अगला चुनाव जीतने वाला है या नहीं।
अक्सर राजनेताओं द्वारा हड़पे जाने वालों पैसे का इस्तेमाल पार्टी के प्रचार अभियान में किया जाता है ताकि अगला चुनाव लड़ा जा सके। सत्ता में होना या सत्ता में बरकरार रहना जितना जरूरी है, शायद वास्तविक नेता या आदर्श नेता बनना उतना जरूरी नहीं होता।
नतीजा यह होता है कि हमारे द्वारा चुने गए नेता हमें ही लूटते-खसोटते रहते हैं। और चूंकि भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भ्रष्टाचार वगैरह के आरोपों की परवाह नहीं करता और जाति, धर्म या वंश के आधार पर अपने नेता का चयन करता है, लिहाजा यह सिलसिला जारी रहता है।
बहरहाल, सामाजिक हैसियत और सामाजिक सुरक्षा महज दिमाग की उपज हैं। मजे की बात यह है कि अगर हम भीतर से खुद का मूल्य नहीं समझते, तो चाहे हमारे पास कितना ही पैसा क्यों न हो, हम कभी भी ‘हैसियत’ का अनुभव नहीं कर पाएंगे। इसीलिए तो भ्रष्ट लोग पागलों की तरह पैसों का ढेर लगाते रहते हैं और एक दिन रंगे हाथों धर लिए जाते हैं।
चूंकि उन्होंने पैसा कमाया नहीं, चुराया है, इसलिए उनका जमीर उन्हें कचोटता रहता है और वे कभी चैन से नहीं जी पाते। भ्रष्टाचार से पैसा कमाया जा सकता है, लक्ष्मी नहीं। लक्ष्मी वह संपदा है, जिसे ईमानदारी और नैतिकता से अर्जित किया जाए। लक्ष्मी अपने साथ शांति और संतोष को लेकर आती है।
अगर आप कभी लक्ष्मीजी का चित्र देखें तो आप पाएंगे कि उनके आसपास सोने के सिक्के हैं, लेकिन वे स्वयं कमल के फूल पर विराजमान हैं और उनके हाथों में भी कमल का फूल है। कमल का फूल शुद्धता, शांति, शुचिता, आध्यात्मिक मूल्यों और संसार की कीच में होने के बावजूद सौंदर्य का प्रतीक है। शांति के बिना संपदा का कोई मोल नहीं ।
इस दीपावली पर धन नहीं, लक्ष्मी के लिए प्रार्थना करें। जो लोग भ्रष्टाचार के जरिये पैसों का अंबार लगाते चलते हैं, उन्हें इस अंतर के बारे में नहीं पता। उनकी दीपावली की पार्टियों चाहे कितनी ही आलीशान क्यों न हों, लक्ष्मी उनके घर कभी नहीं आएंगी । - लेखक अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार हैं।