Monday, May 9, 2011

राष्ट्र, राष्ट्रीयता और हम लोग

देश के स्वाधीनता आंदोलन की गवाह रही बुजुर्ग विदुषियों - कलावेत्ता कपिला वात्स्यायन, अर्थशास्त्री देवकी जैन, वरिष्ठ बाल चिकित्सक डॉ शांति घोष, गांधीवादी राधा बहन और अडयार में कलाक्षेत्र की निदेशक नृत्यांगना लीला सैमसन ने मीडिया से परे एक बहुत सीधी-सादी गोष्ठी में अपने समय की तेजस्विनी महिला नेताओं - कमला देवी चट्टोपाध्याय, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, अरुणा आसफ अली और सरला बहन के जीवन और कृतित्व से जुड़े अंतरंग और दुर्लभ संस्मरण नई पीढ़ी से साझा किए। यह एक न भुलाया जाने वाला अनुभव था, जिसने श्रोताओं को पिछले साठ सालों में देश के माहौल और नेतृत्व के स्तर में आए बदलावों पर सोचने पर बाध्य कर दिया।

पहली बात जो इन संस्मरणों से उभरी, वह यह थी कि गांधी, नेहरू, तिलक और गोखले सरीखे नेताओं ने पहले अपने आंदोलन को आधार देने वाला एक मजबूत ढांचा जनता के बीच पैठकर उनके साथ गढ़ा और तब उनको सिविल नाफरमानी को प्रेरित किया। इनमें से कई नेता विदेशों से ऊंची तालीम लेकर स्वदेश आए थे और भारत ही नहीं, विश्व राजनीति की भी गहरी समझ रखते थे। वापसी के बाद उन्होंने अपना सुविधामय जीवन और पारिवारिक दाय त्यागकर छोटे शहरों और गांवों के आमजन का भरोसा हासिल किया। तभी वे सदियों से राजनीति की मुख्यधारा से कटे हुए हाशिये के समूहों में भी नए लोकतंत्र का सपना जगाने और अन्याय को दमदार चुनौती देने लायक हिम्मत जगा सके।

बयालीस का आंदोलन जब सड़कों पर आया तो वह एक भावनात्मक उफान ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय रूप से संगठित मोर्चा था, जिसके नेता या जनता के बीच अपने साध्य और साधनों की पवित्रता पर कोई आपसी शक या मतभेद नहीं था। दूसरी बात, जो नेता शीर्ष पर थे, उन्होंने समाज को सिविल सोसायटी और शेष के अलग-अलग खांचों में नहीं बांटा। हर वर्ग, हर समूह बार-बार जेल जाने और निजी जीवन में तमाम टूट-फूट झेलने के लायक माना गया। महिला हों या पुरुष, उन लोगों ने भी आंदोलन को अपने हक की लड़ाई या आजादी के बाद सत्ता में अपनी और अपने गुट की भागीदारी से नहीं जोड़ा।

इसी अहसास के चलते सरोजिनी नायडू और फिर कमला देवी ने दांडी यात्रा में महिलाओं को शामिल न करने की बापू की जिद के खिलाफ अपनी जिद बेझिझक भिड़ा दी और महिलाओं को नमक सत्याग्रह से तो जुड़वाया ही, बाद में मुंबई में घर और सरकारी दफ्तरों में घुसकर ‘पवित्र’ आजादी नमक की थैलियां बेचकर राशि हरिजन फंड में भी जमा कराई। ताकलाकोट के गांव में काम कर रही ब्रिटिश मूल की गांधीवादी सरला बहन ने भारतीय कलेक्टर को उसी की अदालत में बुरी तरह फटकार दिया कि वह हिंदुस्तानी होकर भी ब्रिटिश सरकार की तरफ से अपने लोगों की धर-पकड़ क्यों करवा रहा है और नतीजे में नजरबंद की गईं।

उसके बाद भी वे निर्भीकता से जंगलों में रात भर यात्रा कर पहाड़ी इलाके के भूमिगत आंदोलनकारियों के परिवारों तक जरूरी खर्चा-पानी पहुंचाती रहीं। इसी तरह कबायली हमले के बाद सीधे कश्मीर जाकर कमला देवी और सत्यवती मलिक ने घुसपैठ में मारे गए लोगों तक जब तक सरकारी मदद नहीं पहुंची, लगातार अपने स्रोतों से मदद पहुंचाई और दिल्ली में मेयर अरुणा आसफ अली ने नेहरू सरकार से शरणार्थियों के लिए जमीन हासिल ही नहीं की, उनको खुद अपनी अगुवाई में श्रमदान कर फरीदाबाद में नई बस्ती बसाने को प्रोत्साहित भी किया। आज विज्ञान ने भले ही आंदोलनकारी नेताओं और मीडिया को जनसंपर्क साधने या आंदोलनों की सचित्र खबरें पूरी दुनिया तक पहुंचाने में सक्षम बना दिया हो, लेकिन दूरियां पाटने वाले पुराने नि:स्वार्थ व बहुमुखी राष्ट्रीय-मानवीय सरोकार धीरे-धीरे चले गए हैं। संगीत की भाषा में कहें तो आर्केस्ट्रा युग बिखर गया है और साज (या ढपली) पर अपना-अपना राग गाया जा रहा है।

उधर, नया मीडिया भले ही विश्वबंधुता और लोकतांत्रिक पारदर्शिता का पैरोकार बनकर उभरा हो, पर मीडिया उद्योग और सत्ता हर कहीं क्षुद्र आग्रहों तले दमनकारिता और तानाशाही की तरफ ही लुढ़क रहे हैं। नतीजा यह कि हर कहीं जवानी छटपटा रही है, लेकिन भरोसेमंद नेता उसे नजर नहीं आ रहे। जंतर-मंतर पर दिखी भावनाओं का उफान बिला रहा है और नेताओं के खिलाफ शक और कानाफूसी का अप्रिय दौर शुरू हो गया है। यह सब साबित करता है कि आज जनांदोलनों का संकट दो धड़ों के नेताओं के बीच चुनाव का नहीं, बल्कि जो सतत विश्वास पर कायम हो, ऐसे व्यापक जनजुड़ाव की अनुपस्थिति का है। पर फिर भी फौजी तानाशाही से बचने और जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए राजनीतिक संस्थानों और निर्वाचित जननेताओं का लोकतंत्र में कोई विकल्प नहीं तो आज का बड़ा सवाल यह है कि नए नेतृत्व और राजनीतिक संस्थानों पर भरोसा बहाली कैसे सुनिश्चित हो?

जवाब सीधा है, जंतर-मंतर की बजाय जनता के बीच जाकर नेताओं को फिर से दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, कलाकारों, विस्थापितों के मूक बेतरतीब दुखों का शिव धनु उठाना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन के लघुतर नेता और नेत्रियां भी बड़ी सहजता से उस पर प्रत्यंचा चढ़ाकर बेझिझक शीर्ष नेतृत्व के आगे जा खड़े होते थे। यह ठीक है कि पुरानी विचारधाराएं दुनिया भर में मिट रही हैं, इसलिए विचारधारा से विहीन राजनीतिक दल अब ताकत के छोटे-बड़े पुंज भर हैं, जिनके बीच अलग-अलग तरह के वैचारिक आग्रह नहीं, बल्कि राजनेताओं और शासक वर्ग के कथित घोटाले और चुनाव काल या संसदीय सत्र के दौरान बिलों पर मतदान के लिए साधे गए जोड़-तोड़ ही महत्व रखते हैं। पर यह नाकाफी है।

मीडिया में थुलथुल दलालों के भौंडे चुटकुलों के साथ भ्रष्टाचार पर बॉलीवुड के स्वयंभू ज्ञानियों तथा दलालों से शर्मनाक भाव-ताव करने में धरे गए खबरचियों की जिरहों को सुन रहे देश को याद दिलाना जरूरी है कि दिल्ली की पहली महिला मेयर अरुणाजी, हस्तशिल्पियों को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली कमला देवी और सुदूर हिमालयीन अंचल में कस्तूरबा के नाम से स्त्री शिक्षा की ज्योति ले जाने वाली विदेशिनी सरला बहन के पास अंतिम समय अपनी कहने को कोई संपत्ति, यहां तक कि सिर पर अपनी छत तक नहीं थी।

लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

ईश्‍वर का बंटवारा नहीं हो सकता'

भगवान राम विराजमान की ओर से भी एक याचिका दायर की गई है। भगवान राम विराजमान की याचिका में भूमि के बंटवारे का विरोध करते हुए कहा गया है कि ईश्वर का बंटवारा नहीं हो सकता। जब एक बार भूमि को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया गया है, तो फिर उसे अंदर का हिस्सा, बाहर का हिस्सा या केंद्रीय गुंबद में बांटना गलत है।

भगवान राम विराजमान की अपील में सिर्फ जस्टिस एसयू खान व जस्टिस सुधीर अग्रवाल के फैसले को ही चुनौती दी गई है क्योंकि तीसरे जज डीबी शर्मा ने सभी याचिकाएं खारिज करते हुए फैसला भगवान राम विराजमान के हक में सुनाया था। जमीन के बंटवारे पर एतराज निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा को भी है। उसने भी बंटवारे का फैसला रद्द करने की मांग की है।

अयोध्‍या की विवादित जमीन बांटने पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक

नई दिल्ली. अयोध्‍या में विवादित जमीन के मालिकाना हक को लेकर चल रही अदालती लड़ाई में नया मोड़ आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने राम जन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद से जुड़ी विवादित जमीन पर किसी तरह की धार्मिक गतिविधि पर रोक लगाते हुए आज कहा कि इस मामले में विवादित जमीन को तीन हिस्‍सों में बांटने का इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 'हैरान' कर देने वाला है।

हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्‍पणी करते हुए जस्टिस आफताब आलम और आरएम लोढ़ा की बेंच ने कहा है कि विवादित जमीन को किसी भी पक्ष ने बांटने की मांग नहीं की थी। ऐसे में विवादित जमीन को तीन हिस्‍सों में बांटे जाने का इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 'अजीब' और 'चौंकाने' वाला है।

अयोध्या मामले में विभिन्न पक्षों की ओर से दायर याचिकाओं पर सोमवार को सुनवाई शुरू करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीन हिस्‍सों में बांटने के हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए इस मामले में यथास्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया है। विभिन्न हिंदू और मुस्लिम समूहों की ओर से दायर इन याचिकाओं में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी।

सुन्‍नी सेंट्रल वक्‍फ बोर्ड के वकील जफरयाब गिलानी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मीडियाकर्मियों को अवगत कराते हुए कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन पर 7 जनवरी, 1993 की स्थिति बरकरार रखने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि अयोध्‍या में 67.03 एकड़ की विवादित जमीन पर किसी तरह का धार्मिक कार्यक्रम न हो।’

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 सितंबर, 2010 के फैसले में अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित भूमि को तीन हिस्सों-मुस्लिम, हिंदुओं और निर्मोही अखाड़े के बीच बांटने के आदेश दिए थे। इस फैसले के खिलाफ निर्मोही अखाड़ा, अखिल भारत हिंदू महासभा, जमीयत उलमा-ए-हिंद और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आज फैसला सुनाया।

'ईश्‍वर का बंटवारा नहीं हो सकता'

भगवान राम विराजमान की ओर से भी एक याचिका दायर की गई है। भगवान राम विराजमान की याचिका में भूमि के बंटवारे का विरोध करते हुए कहा गया है कि ईश्वर का बंटवारा नहीं हो सकता। जब एक बार भूमि को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया गया है, तो फिर उसे अंदर का हिस्सा, बाहर का हिस्सा या केंद्रीय गुंबद में बांटना गलत है।

भगवान राम विराजमान की अपील में सिर्फ जस्टिस एसयू खान व जस्टिस सुधीर अग्रवाल के फैसले को ही चुनौती दी गई है क्योंकि तीसरे जज डीबी शर्मा ने सभी याचिकाएं खारिज करते हुए फैसला भगवान राम विराजमान के हक में सुनाया था। जमीन के बंटवारे पर एतराज निर्मोही अखाड़ा और हिंदू महासभा को भी है। उसने भी बंटवारे का फैसला रद्द करने की मांग की है।

यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और जमीयत उलेमा- ए- हिंद ने अपील में कहा है कि हाईकोर्ट का फैसला सुबूतों पर नहीं बल्कि आस्था पर आधारित है। वक्फ बोर्ड ने धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में समानता का मुद्दा भी उठाया है और कहा है कि संविधान में दी गई धार्मिक स्वतंत्रता में सभी धर्मों को बराबरी पर रखा गया है, इसे सिर्फ हिंदुओं की आस्था और विश्वास के संदर्भ में परिभाषित करना गलत है।

वक्फ बोर्ड ने कहा है कि हाईकोर्ट के फैसले में राम जन्मस्थान घोषित करते समय हिन्दुओं की आस्था और विश्वास को संविधान में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के तहत तरजीह दी गई है, लेकिन ऐसा करते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में दिया गया यह मौलिक अधिकार सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त है
DB 10-05-2011

Sunday, May 8, 2011

वे मेहमान हैं मेहरबान नहीं

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दीवाली के अगले दिन जब भारत की धरती पर कदम रखेंगे, उनके कंधों पर स्वदेश में घटती लोकप्रियता का जबरदस्त बोझ होगा। हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के हर दूसरे वर्ष होने वाले चुनाव में उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी को साठ सीटों से हाथ धोना पड़ा है।

क्या यह सिर्फ दो साल पहले ‘येस वी कैन’ और ‘होप’ के नारों पर सत्ता में आए राजनेता के प्रति अमेरिकियों के मोहभंग की शुरुआत है? शायद हां। मंदी के दौर में राष्ट्रपति पद के अभियान के दौरान जो नाटकीय उम्मीदें ओबामा ने जगाई थीं, खासकर अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर, उन्हें वह पूरा नहीं कर सके हैं।

ओबामा की भारत यात्रा पर इस पराजय का क्या असर पड़ेगा? ज्यादा नहीं। भारत के लिए अहम मुद्दों पर अमेरिका शिखर यात्रा के उपलक्ष में अपने घोषित रुख बदलेगा, ऐसी उम्मीद न पहले थी, न अब है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट का सवाल हो या आतंक विरोधी लड़ाई में पाकिस्तान के साथ अमेरिका की कुटिल मित्रता का, वह सचाई तभी स्वीकार करेगा, जब खुद उसके हितों पर चोट पड़ेगी। चुनाव प्रचार में ओबामा भारत का हौआ खड़ा करते रहे हैं।

आउटसोर्सिग के नाम पर हमारी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए वीजा की मुश्किलें भी पैदा की गईं। पराजय के बाद कोई कारण नहीं कि वह भारत के खिलाफ यह संरक्षणवादी रवैया बदलेंगे। इसलिए महाशक्ति मेहमान का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए हमें भूलना नहीं चाहिए कि भारत सिर्फ अपनी ताकत के बूते आगे बढ़ सकता है। अब हमारे पास एक विशाल और उभरते बाजार की ताकत भी है, जिसकी भाषा अमेरिकी राष्ट्रपति सबसे बेहतर समझते हैं

भारत-अमेरिका संबंधों का नया अध्याय

विश्व के राजनीतिक परिदृश्य पर भारत और अमेरिका लंबे समय तक अलग-अलग गुटों में रहे। जब रशिया और अमेरिका विश्व की दो सबसे बड़ी ताकतें थीं, तब विकासशील भारत रशिया के खेमे में था। शीतयुद्ध के बाद दुनिया काफी बदल गई है और अमेरिका भी अब इतना ताकतवर नहीं रहा।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के शुरुआती दो दिनों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। ओबामा ने भारत की आर्थिक शक्ति और यहां व्यापार की संभावनाओं को जिस खूबी से पहचाना है, वह पहले दिन हुए व्यापारिक करारों की भरमार में साफ झलका है। पहले भारत अमेरिका की ओर अदब से देखता था, लेकिन अब अमेरिका भारत से मदद चाह रहा है।

भारत के इतिहास में यह बड़ी घटना है। इसके अच्छे दूरगामी परिणाम आने वाले दिनों में दिखेंगे। अमेरिका-भारत अलग-अलग क्षेत्रों में कंधे से कंधा मिलाकर विकास की राह पर चलेंगे, यह कुछ वर्ष पूर्व किसी ने सोचा नहीं था। ओबामा की भारत यात्रा के पहले दिन दोनों देशों में करीब 44 हजार करोड़ रुपयों के करार हुए हैं, जिससे अमेरिका में 50 हजार नौकरियां पैदा होंगी। भारत के कारण अमेरिका में इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा होने का यह पहला और असाधारण अनुभव है।

अमेरिका पहले भी विमान, उन्नत तकनीक, शस्त्र, इंजिन आदि भारत को बेचता रहा है, लेकिन तब भारत याचक की मुद्रा में रहता था। बदली परिस्थितियों में भारत अमेरिका के समकक्ष तो आज नहीं दिखता, पर वैश्विक कैनवास पर अमेरिका के साथ अलग धरातल पर बात करने की ताकत तो आज हममें दिखती है।

दोनों देशों में व्यापार बढ़ने के साथ ही सामरिक समझ भी बढ़ रही है। भारत एक बड़ा बाजार है। यहां का मध्यम वर्ग तेजी से बढ़ रहा है। उधर अमेरिका आर्थिक मंदी से अभी पूरी तरह उबर नहीं सका है। ऐसे में भारत का सहयोग लेना अमेरिका के लिए जरूरी है। चीन का बढ़ता दबदबा भी एक अन्य कारण है।

मुंबई में ओबामा एक ठेठ व्यापारी (नई परिभाषा में सीईओ) की भूमिका में थे। उनके साथ अमेरिका के धनाढच्य उद्योगपति भी आए हैं और उन्होंने ही भारतीय उद्योग समूहों के साथ करार किए हैं। दिल्ली में ओबामा का दूसरा राजनीतिक रूप दिखेगा। यह अच्छा संदेश है कि अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी विकसित होने की राह पर है, फिर भी भारत के लिए संभलकर चलना ही बेहतर होगा।

एक हाईस्कूल के छात्र का देश को चलाना

क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया में और हाईस्कूल के छात्र में कोई समानता हो सकती है? जब कोई प्रधानमंत्री अपनी तुलना एक हाईस्कूल छात्र से करता है और उसे बोलना पड़ता है कि उसे एक के बाद एक परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है तो उसकी बेबसी पर तरस ही आएगा।

प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने शनिवार को हाईस्कूल के छात्र से अपनी बराबरी कर देश को अचंभित कर दिया। नई दिल्ली में देशी-विदेशी ज्ञानियों और कूटनीति से संबंधित अनेक लोगों के सामने दिया उनका बयान ताजा राजनीतिक दौर में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।

क्या डॉ सिंह वाकई कड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं? क्या सर्वोच्च पद पर उनके 6-7 वर्ष इतने पीड़ादायक रहे हैं कि उन्हें लगता है कि एक के बाद एक परीक्षा के दौर से (अपने मन के विरुद्ध) गुजरना पड़ रहा है? यदि ऐसा है तो मसला काफी गंभीर है। यह सही है कि प्रधानमंत्री का पद कांटों का ताज है।

इसे हमेशा पहने रहना पड़ता है, जो कष्टप्रद भी है। देश चलाना यूं भी आसान काम नहीं है। फिर यह गठबंधन सरकार है। डॉ सिंह स्वयं सिद्धहस्त (और कुटिल) राजनीतिज्ञ नहीं हैं। इसलिए उन्हें हमेशा कांग्रेस और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लगभग हर निर्णय के लिए निर्भर रहना पड़ता है। राहुल गांधी भी एक बड़े शक्ति केंद्र हैं।

इन सबके बीच अपनी बात कह पाना निश्चित रूप से इस जाने-माने अर्थशास्त्री के लिए एक परीक्षा से गुजरने जैसा ही होता होगा। डॉ सिंह को देश एक शांत स्वभाव का, सीधा-सादा नेता मानता है, जो कभी स्वयं की इच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे।

उन्होंने पहली पारी और दूसरी पारी के लगभग दो वर्ष देश की सरकार किस तरह चलाई, इस पर विभिन्न मत हैं। पर यह निश्चित है कि वे देश के इतिहास में सबसे कमजोर, निर्णय लेने में अक्षम और परावलंबी प्रधानमंत्री के रूप में जाने गए हैं।

ऐसे में उनकी निजी पीड़ा कभी न कभी बाहर आना स्वाभाविक है। जिस राजा प्रकरण को लेकर डॉ सिंह ने ऐसा अनपेक्षित बयान दे डाला,उससे उन पर हावी दबावों का पता चलता है। उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार असीमित रूप से बढ़ा।

वे ईमानदार होकर भी कड़ी कार्रवाई किसी के खिलाफ कभी नहीं कर पाए। इस कारण जनता में रोष तो है पर करुणा का भाव ज्यादा दिखता रहा। अब जब स्वयं प्रोफेसर रहे प्रधानमंत्री ही अपने आपको हाईस्कूल तक ले जाना चाहते हैं तो देश का भविष्य क्या होगा, यह सोचना पड़ेगा। ‘हाईस्कूल का यह छात्र’ आगे देश को कैसे चला पाएगा, इसका जवाब तो गठबंधन एवं गांधी परिवार से ही अपेक्षित है।

ताकि निष्कलंक और निष्पक्ष हो फौजी वर्दी

देश में आए दिन उजागर होते भ्रष्टाचार के मामलों में सेना भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं है। न्यायपालिका की तरह सेना के प्रति भी जनता के मन में आदर की भावना रही है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमारी व्यवस्था के इन दोनों प्रमुख अंगों की कार्यप्रणाली पर संदेह की उंगलियां उठ रही हैं। निश्चित तौर पर कभी जमीन की अवैध बिक्री, कभी कमजोर और पीड़ितों के लिए बनाए जा रहे फ्लैटों में बुकिंग, कभी सैनिकों को दिए जाने वाले राशन में घपले और कभी सियाचिन के सैनिकों को खराब बूटों की सप्लाई और कभी महिला अधिकारियों के साथ भेदभाव की शिकायतों ने सेना की छवि को दागदार बनाया है।

हथियारों की खरीद में अनियमितता की खबरें आना तो एक परंपरा है। सेना का ढांचा नागरिक प्रशासन के अंगों की तरह खुला और लचीला नहीं है। इसीलिए वहां से गड़बड़ी की खबरें बाहर आना आसान नहीं है। सैन्य प्रशासन के कठोर ढांचे में किसी वरिष्ठ अधिकारी के कामों पर सवाल उठाना हुकुमउदूली की श्रेणी में रख दिया जाता है। यानी सेना में गड़बड़ी की खबरें तभी बाहर आती हैं, जब कोई बड़ा मामला हो जाए। इसके बावजूद यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की महिमा और सेना की आंतरिक निगरानी प्रक्रिया का ही नतीजा है कि तमाम चीजें बाहर आ रही हैं और उन्हें ठीक करने के लिए नागरिक प्रशासन और अन्य संस्थाओं का हस्तक्षेप शुरू हो रहा है।

अगर सैनिकों को दिए जाने वाले सूखे राशन में गड़बड़ी की बात नियंत्रक और लेखा महापरीक्षक (सीएजी) ने उठाई है तो कांदिवली में एक निजी फार्मा कंपनी को जमीन दिए जाने का मामला सेना के आंतरिक सूत्रों की जांच रपट में आया है। अच्छी बात यह है कि उसकी अनदेखी किए जाने की बजाय उस पर कार्रवाई करने और गड़बड़ी को दुरुस्त करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है, क्योंकि गड़बड़ियों के बावजूद हमारी सेना का ढांचा और संसदीय लोकतंत्र के लिए उसकी जवाबदेही की व्यवस्था यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों का मुकाबला करती है।

उसी का परिणाम है कि राशन की अनियमितताओं के मामले में सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने लोक लेखा समिति के सामने पेश होकर उसे ठीक करने का आश्वासन दिया। हालांकि नौसेना प्रमुख के देश में न होने के कारण उनका प्रतिनिधित्व उपप्रमुख ने किया, फिर भी यह मामला बेनजीर था। इससे यह उम्मीद बंधती है कि भ्रष्टाचार की अनदेखी नहीं होगी। इससे लोकतंत्र के साथ ही लोकतंत्र को सम्मान देती सेना का भी मान बढ़ता